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उपासना-विषयक समाधान
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"भगवान् जिनेन्द्रदेवने भी अपनी दिव्य ध्वनि द्वारा उसका ( उपासनाके ढगका ) कोई एक रूप निर्दिष्ट नही किया । बल्कि उन्होने तो यह भी नही कहा कि तुम मेरी उपासना करना, मेरी मूर्ति बनाना और मेरे लिये मन्दिर खडा करना । यह सब मन्दिर - मूर्तिका निर्माण और उपासनाके लिये तरह-तरह के विधि-विधानोका अनुष्ठान स्वय भक्तजनो - श्रावको के द्वारा अपनी-अपनी भक्ति, रुचि तथा शक्ति आदिके अनुसार कल्पित किया गया है और जो समय पाकर रूढ होता गया, जैसा कि श्रीपात्रकेसरी स्वामीके निम्न वाक्यसे ध्वनित है
“विमोक्षसुख-चैत्य-दान-परिपूजनाद्यात्मिकाः क्रिया बहुविध सुभून्मरणपीडनाहेतव । त्वया अलितकेवलेन न हि देशिता'
किन्तु तास्त्वयि प्रसृत भक्तिभिः स्वयमनुष्ठिताः श्रावकै ' ॥३७॥ साथ ही, 'पात्रकेसरीस्तोत्र' के इस पद्यका भावानुवाद भी एक फुटनोटके रूपमे यो दे दिया था
"विमोक्ष सुखके लिये चैत्य - चैत्यालयादिका निर्माण, दानका देना, पूजनका करना इत्यादि रूपसे अथवा इन्हे लक्ष्य करके जितनी क्रियाएँ की जाती हैं और जो अनेक प्रकारसे त्रस, स्थावर जीवो ( प्राणियो ) के मरण तथा पीडनकी कारणीभूत हैं उन सब क्रियाओका, हे केवली भगवान् | आपने उपदेश नही दिया, किन्तु आपके भक्तजन श्रावकोने स्वयं ही ( आपकी भक्ति आदिके वश होकर ) उनका अनुष्ठान किया उन्हें अपने व्यवहारके लिये कल्पित किया है ।"
मेरे इस लिखनेपर ही मोहनलालजी बडजात्या विगड़ गये
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