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युगवीर निवन्धावली
पद्य सुरेन्द्र द्वारा जिस बहुमूल्य बृहत् सिंहासन तथा छत्र चमर विभूतिके रचे जानेका उल्लेख है उसे वे वास्तविक न समझकर 'मनगढन्त' समझते हैं, यशस्तिलकवाले पद्यमे मुनियोंके लिये समयपर भक्तिपूर्वक योजना किये हुए जिस शाकपिण्डको अगण्य - पुण्यका कारण बतलाया है उसे भी आप 'मनगढन्त' मानते हैं और इसी तरहपर आदिपुराणवाले पद्यमे दान देते समय यथाशक्ति अनुष्ठान अथवा विधान की गई मुनीन्द्रोकी पूजाको जो 'नित्य मह' ( नित्य पूजन ) कहा गया है उसको भी आप 'मनगढन्त' बतलाते हैं । यदि आप ऐसा कहनेके लिये तैयार नही हैं और न आपको इन पद्यो प्रयुक्त हुए कल्पित शब्दका वैसा अर्थ ही इष्ट है बल्कि आप 'परिकल्पित' का अर्थ 'रचित' समझते हैं, जैसा कि उस स्तोत्रकी टीकामे भी लिखा है और 'प्रकल्पित' से 'प्रयोजित' का तथा 'उपकल्पित' से 'अनुष्ठित' का आशय लेते हैं तो फिर मेरे द्वारा प्रयुक्त हुए 'कल्पित' शब्दपर आपकी आपत्ति कैसी ? शायद इसपर वडजात्याजी यह कहने लगे कि इन पद्यो कल्पित शब्दका जो प्रयोग हुआ है वह क्रमश परि और उप नामके उपसर्गोको साथमे लेकर हुआ है, इसीसे हम यहाँपर उसका वैसा ( मनगढन्त ) अर्थ माननेके लिये बाध्य नही हैं | परन्तु यह कहना, यद्यपि, विद्वानोकी दृष्टिमे कुछ भी मूल्य नही रखता, क्योकि ये उपसर्ग प्रकृत शब्दके मूल अर्थको बदलने अथवा अन्यथा करनेवाले नही हैं, फिर भी मैं आपके तथा साधारण जनताके सतोषार्थ एक पद्य और भी पेश किये देता हूँ जिसमे बिना किसी उपसर्गको साथमे लिये शुद्ध 'कल्पित' शब्दका प्रयोग है और वह पद्य इस प्रकार है.
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ता शासनाधिरक्षार्थं कल्पिताः परमागमे । अतो यज्ञांशदानेन माननीयाः सुदृष्टिभिः ॥