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युगवीर- निबन्धावली
वातकी कल्पना कर सकते हैं कि बडजात्याजीकी इस मन - परिणतिको किस नामसे उल्लेखित किया जाय । में तो क्षोभकी हालत मे चित्तकी अस्थिरताके सिवाय इसे और कुछ भी नही
समझता ।
यह सब चित्तकी उम अस्थिरताका ही परिणाम है जो asजात्याजी अपने लेखके शुरू तो यह प्रकट करते हैं कि उनकी समझमे मेरे लेखका तात्पर्य ( अभिप्राय ) ही नही आया वह उनपर स्पष्ट ही नही हुआ और फिर जगह-जगह खुद ही उस अभिप्राय अथवा तात्पर्यका उल्लेख करते हुए उसपर इस ढगसे कटाक्ष करते हैं, मानो वही मेरा अभिप्राय है और वह उन्हे बिलकुल ही सुनिश्चित रूपसे परिज्ञात है । अन्यथा, मेरे अभिप्रायको बिलकुल ही सुनिश्चितरूपसे समझनेकी हालतमे उनके इस लिखनेका कि वह "स्पष्ट समझमे नही आया" कुछ भी अर्थ नही हो सकता, और न वैसा न समझनेकी हालत मे उन्हे बिना उसका स्पष्टीकरण कराए या उसमे विकल्प उठाए उसपर सीधा कटाक्ष करनेका कोई अधिकार था । परन्तु क्षोभकी हालत मे इन सव वातोको सोचे-समझे कौन ? चित्तकी अस्थिरता सव कुछ अनर्थ करा देती है उसमे विचार अथवा विवेकको स्थान ही नही रहता ।
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asजात्याजी यह तो स्वीकार करते हैं कि हमारी वर्तमान उपासना सदोप हो सकती है, परन्तु मैंने उसमे जिन दोषोका उल्लेख किया है उन्हे वे दोप नही मानते, वल्कि "प्राचीन शास्त्रोक्त - क्रियाओ, पूजा आदिपर अनुचित आक्षेप" बतलाते हैं । और इसलिये यह कहना चाहिये कि बडजात्याजी नौकरोसे पूजन कराने, मूर्तियोकी निर्माण - विधिमे शिथिलता लाकर बेढगी तथा