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युगवीर-निवन्धावली उन्हे न्यायासनपर विठलाना अथवा उनसे वैसे ही किसी विषयका न्याय कराना कभी शोभा नही दे सकता। एक चोरका दूसरेके चौर-कर्मका विचारक बनना और उसे दण्ड देना नि सन्देह दण्ड-नीतिका उपहास करना है । समाजका अधिकाश वातावरण आजकल ऐसे ही दोषोसे दूपित और कलुषित है । जाति-पचायतोकी वह आधुनिक नीति भी, जिसका मैंने अपने लेखमे उल्लेख किया था और जो प्राय. सर्वत्र पाई जाती है, इसी विपयको पुष्ट करती है । ऐसी हालतमे वहिष्कार जैसे तीक्ष्ण-शस्त्रके प्रयोगकी किसीको सत्ता देना भय तथा अनिष्टकी सभावनासे खाली नही है। इसके लिए सबसे पहले समाजके वातावरणको शुद्ध करनेकी जरूरत है, जिसका प्रारम्भ मुखियाओके सुधारसे होना चाहिए और वह तव ही हो सकता है जब कि, मेरे सूचित क्रमानुसार, ऐसे पचोकी निरकुश प्रवृत्तिका घोर विरोध किया जाय और उनके अन्यायको चुपचाप सहन न करके उन्हे सन्मार्गपर लाया जाय । आशा है समाजके दृढप्रतिज्ञ वीर-पुरुष मेरी उस सूचना अथवा प्रेरणापर ध्यान देकर जरूर मैदानमे आयेगे और समाजमे जो दण्ड-विपयक गोलमाल तथा अत्याचार चल रहा है उसे अव और आगे न चलने देंगे। ऐसा करनेपर वे समाजमे शुद्ध न्याय और शुद्ध दण्ड-विधानकी व्यवस्था ही नही कर सकेगे वल्कि असख्य दुखित और पीडित प्राणियोंके आशीर्वाद ग्रहण करनेमे भी समर्थ हो सकेगे।
-जैन जगत, १६-४-१६२६