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दण्डविधान-विषयक समाधान
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लिया जाता तो इतनेसे भी काम चल सकता था, क्योकि एकान्त विचार मिथ्या होते हैं और इसलिये उनके आधारपर किया हुआ दड-विधान सम्यक् अथवा समुचित नही हो सकता। परन्तु बडजात्याजीने इसपर भी कुछ ध्यान दिया मालूम नही होता। अस्तु, अब आशा है कि इस विवेचनसे उनकी समझमे यह वात भले प्रकार आ जायगी कि किसीको दड देनेमे दडदाताके हृदयकी उदारता या अनुदारताका क्या सम्बन्ध है और उसका कितना अर्थ है।
दण्ड दोषकी शुद्धि एव दोपी तथा समाजकी हित-वृद्धि के लिये दिया जाता है। उसके इस उद्देश्यकी रक्षा तथा सफलताके लिये इस बातकी खास जरूरत है कि दण्ड-विधाता स्वय शुद्ध तथा निर्दोष हो-कम-से-कम उसी अपराधका अथवा उसी कोटि या उतने ही महत्त्वके किसी दूसरे अपराधका, गुप्त या प्रकट रीतिसे, अपराधी न होना चाहिये और न उसका हृदय उस समय व्यक्तिगत राग-द्वेष, पक्षपात, तिरस्कार या किसी दूसरे अनुचित प्रभावसे अभिभूत ही होना चाहिए। इसके सिवाय, दोषका सच्चा ज्ञान, देश-कालकी स्थिति तथा दडके परिणामका विवेक, समाजकी हित-साधनाका भाव और दोषीके व्यक्तित्वके प्रति प्रेमका होना भी उसके लिये अनिवार्य है। वहिष्कारकी हालतमे वह खासतौरसे समाजका सच्चा प्रतिनिधि भी होना चाहिए । 'विना इन सब गुणोके दण्डका विधान करना कोरी विडम्बना है और उससे समाजमे सन्तोष तथा क्षेमकी वृद्धि नही हो सकती । जो लोग स्वय अनेक प्रकारके अन्याय, अत्याचार, अनाचार, व्यभिचार, छल-कपट, झूठ, फरेव, धोखादेही, वेईमानी, दगाबाजी, जालसाजी और भ्रूण तथा वाल-हत्याएँ तक करते-कराते हो