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विवाह-क्षेत्र-प्रकाश सन् १९१६ मे-, 'पद्मावती पुरवाल'के द्वितीय वर्पके ५वें अकमे 'शिक्षाप्रद-शास्त्रीय-उदाहरण' नामके प्रकृत लेखपर अपना विचार प्रकट करते हुए, उन्होने स्वय देवकीको राजा उग्रसेनकी पुत्री और वसुदेवकी भतीजी स्वीकार किया है। आपके उस विचार-लेखका एक अश इस प्रकार है -
"जिस समय राजा वसुदेव आदि सरीखे व्यक्तियोका अस्तित्व पृथ्वीपर था, उस समय अयोग्य व्यभिचार नही था। जिस स्त्रीको ये लोग स्वीकार कर लेते थे उसके सिवाय अन्य स्त्रीको मॉ, बहिन, पुत्रीके समान मानते थे। इसलिये उस समय देवकी और वसुदेव सरीखे विवाह भी स्वीकार कर लिये जाते थे । अर्थात् यद्यपि कुटुम्बके नाते राजा उग्रसेन वसुदेवके भाई लगते थे, परन्तु किसी अन्य कुटुम्बसे आई हुई स्त्रीसे उत्पन्न उग्रसेनकी पुत्रीका भी वसुदेवने पाणिग्रहण कर लिया था। लेकिन उसके बाद फिर ऐसा जमाना आता गया कि लोगोके हृदयोसे धार्मिक-वासना विदा ही हो गई, लोग खास पुत्री और बहिन आदिको भी स्त्री बनानेमे सकोच न करने लगे, तो गोत्र आदि नियमोकी आवश्यकता समझी गई। लोगोने अपनेमे गोत्र आदिकी स्थापना कर चचाताऊजात बहिन-भाईके शादी-सम्बन्धको बद किया। वही प्रथा आजतक बराबर जारी है।"
इस अवतरणसे इतना ही मालूम नहीं होता कि पण्डित गजाधरलालजीने देवकीको राजा उग्रसेनकी पुत्री तथा वसुदेवको उग्रसेनका कुटुम्बके नाते भाई स्वीकार किया है और दोनोके विवाहको उस समयकी दृष्टिसे उचित प्रतिपादन किया है, बल्कि यह भी स्पष्ट जान पडता है कि उन्होने उस समय चचा-ताऊजाद बहिनभाईके शादी-सम्बन्धका रिवाज माना है और यह स्वीकार किया