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युगवीर-निवन्धावली
उन ग्रथोका कुछ हाल मालूम नही है। शायद समालोचकजी ही एक ऐसे विचित्र व्यक्ति होगे जिन्होने कम-से-कम देहलीसे, जहाँ आपका अक्सर निवास रहता है, प्रकाशित होने वाली सभी पुस्तको तथा ग्रन्थोको-परिचय, इच्छा, और सप्राप्ति आदिके न होते हुए भी पढा होगा और आपको उनका पूर्ण विषय भी कण्ठस्थ होगा। रही लेखककी नथोके पढनेकी बात, यद्यपि उसका अधिकाश समय ग्रन्थोके पढने और उनमेसे अनेक तत्त्वो तथा तथ्योका अनुसधान करनेमे ही व्यतीत होता है, फिर भी वह देववन्दसे प्रकाशित हुए ऐसे साधारण सभी ग्रन्थोको तो क्या पढता, स्वयं उसकी लाइब्रेरीमे पचासो अच्छे ग्रन्थ इस वक्त भी मौजूद है जिन्हे पूरी तौरपर अथवा कुछको अधूरी तौरपर भी पढने-देखनेका अभीतक उसे अवसर नही मिल सका। इसलिये समालोचकजीका उक्त आक्षेप व्यर्थ है और वह उनके दुराग्रहको सूचित करता है।
यहाँ तकके इस सब कथनसे यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि देवकी न तो कुरुवशमे उत्पन्न हुई थी, न कसके मामाकी लडकी थी और न वैसे ही कस-द्वारा कल्पना की हुई बहन थी, बल्कि वह कंसके पिता उग्रसेनके सगे भाई अथवा कंसके सगे चाचा देवसेनकी पुत्री थी- यदुवशमे उत्पन्न हुई थी
और इसीलिये नृप भोजकवृष्टि ( या नरवृष्णि ) तथा भोजकवृष्टिके भाई अधकवृष्टि ( वृष्णि ) की पौत्री थी और उसे अधकवृष्टिके पुत्र वसुदेवकी भतीजी समझना चाहिये । इसी देवकीके साथ वसुदेवका विवाह होनेसे साफ जाहिर है कि उस वक्त एक कुटुम्वमे भी विवाह हो जाता था और उसके मार्गमे आजकल-जैसी गोत्रोकी परिकल्पना कोई बाधक नही थी।