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युगवीर-मिबन्धावली
किया था। साथ ही, उन्होने ऐसे सनातन मार्गोंके पुनरुद्धार - कर्त्ताओको सत्पुरुषो द्वारा पूज्य भी ठहराया था ।"
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उदाहरणके इस अंशपर सिर्फ तीन खास आपत्तियाँ की गई हैं जिनका सारा इस प्रकार है.
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( १ ) एक वाजनीके रुपमे उपस्थित होनेपर वसुदेवको "रक तथा अकुलीन" क्यो लिखा गया । "क्या बाजे बजानेवाले सव अकुलीन ही होते हैं ? बडे-बडे राजे और महाराजे तक भी बाजे बजाया करते हैं ।" ये रक तथा अकुलीनके शब्द अपनी तरफमे जोडे गये हैं । वसुदेवजो अपने वेपको छिपाये हुए जरुर थे " किन्तु इस वेपके छिपानेसे उनपर कंगाल या अकुलीनपना लागू नही होता । "
(२) "यह बाबूजीका लिखना कि "रोहिणीने वडे ही निसकोच भावसे वाजत्री रूपके धारक अज्ञात कुल-जाति रञ्ज व्यक्तिके गले में माला डाल दी" सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है" ।
( ३ ) " जो श्लोकका प्रमाण दिया वह वसुदेवजीने क्रोधमे कहा है किसी आचार्यने आज्ञास्प नही कहा जो प्रमाण हो, " ।
इससे पहली आपत्तिकी बावत तो सिर्फ इतना ही निवेदन है कि लेखकने कही भी वसुदेवको रक तथा अकुलीन नही लिखा और न यही प्रतिपादन किया कि उनपर कंगाल या अकुलीनपना लागू होता है । 'कगाल' शव्दका तो प्रयोग भी उदाहरणभरमै कही नही है और इसलिये उसे समालोचकजीकी
५. तथा स्वयवरस्येमे नाभूवन्यद्यकम्पना 1 क प्रवर्त्तयिताऽन्योऽस्य मार्गस्यैव सनातन ॥ ४५ ॥ मार्गाशिवरतनान्येऽत्र भोगभूमितिरोहितान् । कुर्वन्ति नूतनान्सन्त सहि पूज्यास्त एव हि ॥ ५५ ॥ - भ० पु० पर्व ४५ ।