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दण्डविधान-विषयक समाधान
१५५ जाति-पचायतोके अनुचित दण्ड-विधानोकी जनरल ( व्यापक ) समालोचना है-उनपर टीका-टिप्पणी की गई है किसी एक ही व्यक्ति-विशेप या खास पचायतसे उसका सम्बन्ध नहीं है। मेरे लेखका जो वाक्य वडजात्याजीने उद्धृत किया है उससे भी यही स्पष्ट ध्वनि निकलती है । उसमें 'जरा-जरा-सी बातपर' ये शब्द अपराधकी लघुताको और 'जातिमे च्युत तथा विरादरीसे खारिज करके उनके धार्मिक अधिकारोमे भी हस्तक्षेप करके उन्हे सन्मार्गसे पीछे हटा रहे है' ये शब्द दण्डकी गुरुता एव अनुचितताको प्रकट कर रहे हैं । साथ ही, जातीय तथा सघशक्तिको निर्बल और नि सत्व बनानेकी जो उसमे वात कही गई है वह भी दण्डकी अनुचितताको घोषित करती है, क्योकि उचित अथवा सम्यक्दडका वैसा परिणाम नही होता। और अनुचित दण्ड अवश्य ही अवहेलना किये जानेके योग्य है। उसपर हमेशासे आपत्ति होती आई है, होती रहेगी और होनी चाहिये । अत उस आपत्तिसे विचलित होनेकी अथवा 'दडको ही उडाया जाता है' या 'दोपीको दड देना उसे सन्मार्गसे पीछे हटाना बताया जाता है' इस प्रकारकी दुहाई देनेकी जरूरत नही है। हाँ, उस दडकी उपयुक्तता और समुचितताके पक्षमे यदि कोई युक्ति-बल हो तो उसे प्रकट करना चाहिए। वडजात्याजीने ऐसा कुछ भी नहीं किया-कोरी सिद्धान्तकी वाते की हैं। उनका सारा लेख योग्य दडकी उपयोगिताके उल्लेखोसे भरा हुआ हो तो भला, योग्यदडकी उपयोगितासे किसीको कव इनकार हो सकता है ? अथवा इसमे किसीको क्या आपत्ति हो सकती है कि, दण्ड यथादोप,
यथोचित, समुचित और सम्यक् होना चाहिए, उसके प्रणयनमें - तिलका ताड और ताडका तिल' न करना चाहिए, दडदाताको