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युगवीर-निवन्धावली समालोचकजीकी जिनदास ब्रह्मचारीके उक्त श्लोकपर आपत्ति कैसी ? उसमे तो यही बतलाया गया है कि स्वयवरमे कन्या अपनी इच्छानुसार वर पसद करती है, उसमे वरके कुलीन या अकुलीन होनेका कोई नियम नही होता और इसका समर्थन ऊपरकी घटनासे भले प्रकार हो जाता है।
परन्तु तीसरी आपत्तिमे समालोचकजी उक्त श्लोकको क्रोधमे कहा हुआ ठहरा कर अप्रामाणिक बतलाते हैं और आप स्वय, दूसरे स्थानपर, एक कामीजन-द्वारा अपनी कामुकीके प्रति, काम-पिशाचके वश-वर्ती होकर, कहा हुआ वाक्य प्रमाणमै पेश करते हैं और उसमे आए हुए "प्रिये' पदपरसे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उन दोनोमे पति-पत्नीका सम्बन्ध स्थापित हो गया था-उनका विवाह हो चुका था- यह कितने आश्चर्यकी बात है। अस्तु, मैं अपने पाठकोको यह भी बतला देना चाहता हूँ कि उक्त श्लोक क्रोधमे नही कहा गया, किन्तु क्षुभित राजाओको शात करते हुए उन्हे स्वयम्वरकी नीतिका स्मरण करानेके लिये कहा गया है। जिनदास ब्रह्मचारीके हरिवश- ' पुराणमे उक्त श्लोकसे पहले यह श्लोक पाया जाता है -
वसुदेवस्ततो धीरो जगाद क्षुभितान्नपान् ।
मद्वचः श्रूयता यूय साहकारकारिण ॥ ७० ॥ इसमे वसुदेवका 'धीर' विशेषण दिया है और उसके द्वारा यह सूचित किया गया है कि वे क्षुभित तथा अहकारी राजाओको स्वयवरकी नोतिको सुनाते हुए स्वय धीर थे—क्षुभित अथवा कुपित नही थे। श्री जिनसेनाचार्यने तो इस विषयमे और भी स्पष्ट लिखा है । यथा .
वसुदेवस्ततो धीरः प्रोवाच क्षुभितान्नुपान् । श्रूयतां क्षत्रियैदृप्तः साधुभिश्च वचो मम ॥ ५२ ॥