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युगवीर-निबन्धावलो उनसे कन्यादि रत्नोके ग्रहण करनेका वही हाल है जो ऊपर वतलाया गया है और दूसरे पद्यमे लिखा है कि ये लोग धर्म ( अहिसादि ) और कर्म (निराभिप-भोजनादिरूप सदाचार ) से वहिर्भूत हैं-भ्रष्ट है-इसलिये इन्हे 'म्लेच्छ' कहते हैं, अन्यथा, दूसरे आचरणो ( असि, मसि, कृपि, विद्या, वाणिज्य, शिल्प और विवाहादि कर्मों) की दृष्टिसे आर्यावर्त्तकी जनताके समान है, ( अन्तर्वीपज म्लेच्छोके समान नही)।
बस, इस एक श्लोकपरसे ही समालोचकजी अपने उस सव कथनको सिद्ध समझते हैं जिसका विधान उन्होने अपने उक्त वाक्योमे किया है। परन्तु इस श्लोकमे तो साफ तौरपर उन म्लेच्छोको धर्म-कर्मसे बहिर्भूत ठहराया है, और इससे अगले ही निम्न पद्यमे उनके निवासस्थान म्लेच्छखण्डको 'धर्म-कर्मकी अभूमि' प्रतिपादन किया है। अर्थात्, यह बतलाया है कि वह भूमि धर्मकर्मके अयोग्य है-वहाँ अहिंसादि धर्मोका पालन और सत्कर्मोका अनुष्ठान नही बनता -
इति प्रसाध्य तां भूमिमभूमि धर्मकर्मणाम् । म्लेच्छराजवलैः साद्धे सेनानीन्यवृतत्पुनः ॥१४॥
-आदिपुराण, ३१ वॉ पर्व । फिर समालोचकजी किस आधारपर यह सिद्ध समझते हैं कि उन म्लेच्छोमे हिंसा तथा मासभक्षणादिककी प्रवृत्ति सर्वथा नही है ? हिंसा तो अधर्मका ही नाम है और मासभक्षणादिकको असत्कर्म कहते हैं, ये दोनो ही जव वहा नही और वे लोग नीच तथा कदाचरणी भी नही तव तो वे खासे धर्मात्मा, सत्कर्मी और आर्यखण्डके मनुष्योसे भी श्रेष्ठ ठहरे, उन्हे धर्म-कर्मसे बहिर्भूत कैसे कहा जा सकता है ? क्या धर्म-कर्मके और कोई सीग-पूंछ