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विवाह-क्षेत्र-प्रकाश
१६१ घरमे ही वैरागी" आदि अनेक प्रकारकी स्तुतिये प्रसिद्ध है, वे भरत नीच-कन्याओसे विवाह करे। ऐसे महापुरुपोके लिये नीचकन्याओके साथ विवाहकी बात कहना केवल उनका अपमान करना है, उन्हे कलक लगाना है।"
इसके उत्तरमे हम सिर्फ इतना ही कहना चाहते हैं कि भरतजी किसी वक्त घरमे वैरागी जरूर थे, परन्तु वे उस वक्त वैरागी नही थे जब कि दिग्विजय कर रहे थे, युद्धमे लाखो जीवोका विध्वस कर रहे थे और हजारो स्त्रियोसे विवाह कर रहे थे। यदि उस समय, यह सब कुछ करते हुए, भी वे वैरागी थे तो उनके उस सुदृढ वैराग्यमे एक नीच-जातिकी कन्यासे विवाह कर लेनेपर कौन-सा फर्क पड जाता है और वह किधरसे बिगड जाता है ? महाराज ! आप भरतजीकी चिन्ताको छोडिये, वे आप जैसे अनुदार विचारके नहीं थे। उन्होने राजाओको क्षात्र-धर्मका उपदेश देते हुए स्पष्ट कहा हे -
स्वदेशेऽनक्षरम्लेच्छान् प्रजावाधाविधायिनः । कुलशुद्विप्रदानाद्यैः स्वसाकुर्यादुपक्रमै ॥१७९।।
-आदिपुराण, पर्व ४२ वॉ। अर्थात्-अपने देशमे जो अज्ञानी म्लेच्छ हो और प्रजाको बाधा पहुँचाते हो-लूटमार करते हो-उन्हे कुलशुद्धि-प्रदानादिकके द्वारा क्रमश अपने बना लेने चाहिये ।
यहाँ कुल-शुद्धिके-द्वारा अपने बना लेनेका स्पष्ट अर्थ म्लेच्छोके साथ विवाह-सबध स्थापित करने और उन्हे अपने धर्ममे दीक्षित करके अपनी जातिमे शामिल कर लेनेका है। साथ ही यह भी जाहिर होता है कि म्लेच्छोका कुल शुद्ध नही। और