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युगवीर-निवन्धावली
सहित मरण करे उसका सम्पूर्ण जीवन पवित्र ही रहा होउसने कभी व्यभिचार न किया हो ? किसी भी शास्त्रमे ऐसा नियम नही पाया जाता। और न यही देखनेमे आता है कि जिसने एक वार अणुव्रत धारण कर लिये वह कभी उनसे भ्रष्ट न हो सकता हो। अणुव्रतीकी तो बात ही क्या अच्छे-अच्छे महावती भी काम-पिशाचके वशवर्ती होकर कभी-कभी भ्रष्ट हो गये हैं। चारुदत्त भी तो अणुव्रती थे और श्रावकके इन व्रतोको लेनेके बाद ही वेश्यासक्त हुए थे। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि ऋषिदत्तासे व्यभिचार नहीं बन सकता था। श्रीजिनसेनाचार्यने तो साफ लिखा है कि उन दोनोके पारस्परिक । प्रेमने चिरकालकी मर्यादाको तोड़ दिया था। यथा --
१शातायुधसुतः श्रीमांश्रावस्तीपतिरेकदा। शीलायुध इति ख्यातः सयातस्तापसाश्रमम् ।। ३६॥ एकयैव कृतातिथ्यस्तया तापसकन्यया । रुच्याहारैमनोहारि-सवल्कलकुचश्रिया॥३७॥ अतिविश्रभतः प्रम तयोरप्रतिरुपयोः । विभेद निजमर्यादां चिर समनुपालिताम् ॥३८॥
१. जिनटास ब्रह्मचारीने, अपने हरिवगपुराणमें, इन चारों पयोंकी जगह नीचे लिखे तीन पद्य दिये हैं :
शातायुधात्मजो जातु श्रावस्तीनगरीपतिः । शीलायुधामिधोऽयासीत्त तापसजनाश्रमं ॥३॥ तयैकयैव विहितातिथ्यस्तापसकन्यया। वन्याहारै. परां प्रीति स तया सह संगत. ॥३७॥ ततो रहसि निःशकस्तामसौ तापसात्मजां । बुभुजे कामनाराचवशाल्पीकृतविग्रहाम् ॥३८॥