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विवाह क्षेत्र प्रकाश
भाषामे दस्से के सिवाय और क्या कहा जा सकता है ? परन्तु पहले जमानेमे 'दस्से - वीसे' का कोई भेद नही था और न जैनशास्त्रोमे इस भेदका कही कोई उल्लेख मिलता है । यह सव कल्पना बहुत पीछेकी है जब कि जनताके विचार बहुत कुछ सकीर्ण, स्वार्थमूलक और ईर्पा -द्वेष-परायण हो गये थे । प्राचीन समयमै तो दो-दो वेश्या - पुत्रियोसे भी विवाह करने वाले 'नागकुमार' जैसे पुरुष समाजमे अच्छी दृष्टिसे देखे जाते थे, नित्य भगवानका पूजन करते थे और जिनदीक्षाको धारण करके केवलज्ञान भी उत्पन्न कर सकते थे। परन्तु आज इससे भी बहुत कम होन विवाह कर लेने वालोको जातिसे खारिज करके उनके धर्मसाधनके मार्गों को भी वन्द किया जाता है, यह कितना भारी परिवर्तन है । समयका कितना अधिक उलटफेर है । और इससे समाजके भविष्यका चिन्तवन कर एक सहृदय व्यक्तिको कितना महान् दु ख तथा कष्ट होता है ।
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यहाँपर मैं समालोचकजीको इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि दस्सो और बीसोमे परस्पर विवाहकी प्रथा सर्वथा वन्द नही है । हूमड आदि कई जैन जातियोमे वह अव भी जारी है और उसका वरावर विस्तार होता जाता है । वम्बईके सुप्रसिद्ध 'जैनकुल भूषण' सेठ मणिकचन्दजी जे० पी० के भाई पानाचन्दका विवाह भी एक दस्सेकी पुत्रीसे हुआ था । इसलिये आपको इस चिंतासे मुक्त हो जाना चाहिये कि यदि जैनजातिमे इस प्रथाका प्रवेश हुआ तो वह रसातलको चली जायगी । दस्सोसे विवाह करना आत्मपतनका अथवा आत्मोन्नतिमे बाधा पहुँचाने का कोई कारण नही हो सकता । दस्सोमे अच्छे-अच्छे प्रतिष्ठित और धर्मात्मा जन मौजूद हैं - वे वीसोसे