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युगवीर-निवन्धावली
अथवा कानीनकी पुत्री थी, जिसे आजकलकी भाषामे दस्सा या गाटा भी कह सकते हैं। मालूम नही समालोचकजीको एक व्यभिचारजात या दस्सेकी पुत्रीसे विवाहकी वातपर क्यों इतना क्षोभ आया, जिसके लिये बहुत कुछ यद्वा तद्वा लिखकर समालोचनाके बहुत से पेज रंगे गये हैं- जब कि साक्षात् व्यभिचारजात वेश्या - पुत्रियो तकसे विवाह के उदाहरण जैनशास्त्रोमे पाये जाते हैं और जिनके कुछ नमूने ऊपर दिये जा चुके हैं। क्या जो लोग म्लेच्छ- कन्याओ तकसे विवाह कर लेते थे उनके लिये एक दस्से या व्यभिचारजातकी आर्य कन्या भी कुछ गई- बीती हो सकती है ? कदापि नही | आजकल यदि कोई वेश्यापुत्री से विवाह कर ले तो वह उसी दम जातिसे खारिज किया जाकर दस्सा या गाटा वना दिया जाय । साथमे उसके साथी और सहायक भी यदि दस्से बना दिये जायें तो कुछ आश्चर्य नही । अत आजकलकी दृष्टि जिन लोगोंने पहले वेश्याओसे विवाह किये वे सब दस्से' होने चाहिये ।
ऋषिदत्ताके पिता अमोघदर्शनने भी अपने पुत्र चारुचंद्रका विवाह 'कामपताका' नामकी वेश्या - पुत्री से किया था, जिसके कथनको भी समालोचकजी कथाका पूर्णांश देते हुए छिपा गये । और इसलिये ऋषिदत्ता दस्सेकी पुत्री और दस्सेकी बहन भी हुई । तब उसकी उक्त प्रकार से उत्पन्न हुई सतानको आजकलको
१. दस्सा केवल व्यभिचारजातका ही नाम नहीं है बल्कि और भी कितने ही कारणोसे 'दरसा' संज्ञाका प्रयोग किया जाता है, और न सर्व व्यभिचारजात ही दरसा कहलाते हैं, क्योकि कुंड संतान जो भर्तारके जीते-जी ओर पास मौजूद होते हुए जारसे पैदा होती है वह व्यभिचारजात होते हुए भी दस्सा नहीं कहलाती ।