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युगवीर-निवन्धावली
प्राकृत हरिवशपुराण उससे ६६० वर्ष वादका बना हुआ हैपरन्तु उसमें तेसि ( ? ) की साक्षीसे तो क्या वैसे भी विवाह करनेका कोई उल्लेख नही है, जैसा कि ऊपर जाहिर किया जा चुका है। इसके सिवाय, भट्टारकजीने स्वय यह सूचित किया है कि मेरे इस ग्रन्यके शब्द-अर्थका सम्बन्ध जिनसेनाचार्यके शास्त्र (हरिवशपुराण) से है । यथा --
सद अत्थ संबंध फुरंतर।
जिणसेणहो मुत्तहो यहु पयदिउ । और जिनमेनाचार्यने साफ तौरपर विवाहका कोई उल्लेख न करके उक्त अवसरपर भोगका उल्लेख किया है और "अरोरमत्" पद दिया है। जिनसेनाचार्यके अनुसार अपने हरिवशपुराणको रचना करते हुए, ब्रहमचारी जिनदासने भी वहाँ "मुजे" पदका प्रयोग किया है जिसका अर्थ होता है ‘भोग किया' अथवा भोगा और इसलिये वह जिनसेनके 'अरीरमत्' पदके अर्थका ही द्योतक है। परन्तु यहाँ "करेवि विवाहिय' शब्दोसे वह अर्थ नही निकलता, जिससे पाठके अशुद्ध होनेका खयाल और भी ज्यादा दृढ होता है। यदि वास्तवमे पाठ अशुद्ध नहीं है, बल्कि भट्टारकजीने इसे इसी रूपमे लिखा है और वह ग्रंथकी प्राचीन प्रतियोमे भी ऐसे ही पाया जाता है तो मुझे इस कहनेमे कोई सकोच नहीं होता कि भट्टारकजीने जिनसेनाचार्यके शब्दोका अर्थ समझनेमे गलती की और वे अपने ग्रन्थमे शब्द-अर्थके सम्बन्धको ठीक तौरसे व्यवस्थित नहीं कर सके यह भी नही समझ सके कि विवाहके अनन्तर उक्त प्रश्नोत्तर कितना वेढगा और अप्राकृतिक जान पडता है। आपका ग्रन्य है भी बहुत कुछ साधारण ।