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विवाह-क्षेत्र प्रकाश as beloved female भी दिया है। कामीजन तो अपनी कामुकियो अथवा प्रेमिकाओको इन्ही शब्दोमे क्या इनसे भी अधिक प्रेम-व्यजक शब्दोमे सम्बोधन करते हैं। ऐसी हालतमे ऋपिदत्ताके प्रेमपाशमे बँधे हुए उस कामाध शीलायुधने यदि उसे 'प्रिये' अथवा 'वल्लभे' कहकर सम्बोधन किया तो इसमे कौन आश्चर्यकी बात है ? इन सम्बोधन-पदोसे ही क्या दोनोका विवाह सिद्ध होता है ? कभी नही। केवल भोग करनेसे भी गधर्वविवाह सिद्ध नही हो जाता, जब तक कि उससे पहले दोनोमे पति-पत्नी वननेका दृढ सकल्प और ठहराव न हो गया हो । अन्यथा, कितनी ही कन्याएँ कुमारावस्थामे भोग कर लेती है
और वे फिर दूसरे पुरुषोसे व्याही जाती हैं। इसलिए गधर्व विवाहके लिये भोगसे पहले उक्त सकल्प तथा ठहरावका होना जरूरी और लाजिमी है। समालोचकजी कहते भी हैं कि उन दोनोने ऐसा निश्चय करके ही भोग किया था, परन्तु जिनसेनाचार्यके हरिवशपुराणमे उस सकल्प, ठहराव अथवा निश्चयका कही भी कोई उल्लेख नही है। भोगके पश्चात भी ऋषिदत्ताकी ऐसी कोई प्रतिज्ञा नही पाई जाती जिससे यह मालूम होता हो कि उसने आजन्मके लिये शीलायुधको अपना पति बनाया था।
समालोचकजी एक वात और भी प्रकट करते हैं और वह यह कि ऋपिदत्ता पचाणुव्रतधारिणी थी और 'सम्यक्त्वसहित' मरी थी "इसीलिये यह बिना किसीको पति वनाये कभी कामसेवन नही कर सकती थी।" परन्तु सकने और न सकनेका सवाल तो वहुत टेढा है। हम सिर्फ इतना ही पूछना चाहते हैं कि यह कहॉका और कौनसे शास्त्रका नियम है कि जो सम्यक्त्व