________________
विवाह - क्षेत्र- प्रकाश
१६७
'दस्सा' या 'गाटा' भी कहना चाहिये । वसुदेवजीने विवाह के समय यह सब हाल जानकर भी इस विवाहको किसी प्रकारसे दूपित, अनुचित अथवा अशास्त्र सम्मत नही समझा और इसलिये उन्होने बडी खुशीके साथ प्रियंगुसुन्दरीका भी पाणिग्रहण किया ।"
उदाहरणके इस अशपर जो कुछ भी आपत्ति की गई है उसका साराश सिर्फ इतना ही है कि एणीपुत्र व्यभिचारजात नही था, किन्तु गन्धर्व विवाहसे उत्पन्न हुआ था । परन्तु ऋषिदत्ताका शीलायुधसे गन्धर्व विवाह हुआ था, ऐसा उल्लेख जिनसेनाचार्य ने अपने हरिवशपुराणमे कहाँ किया है, इस वातको समालोचकजी नही वतला सके । आपने उक्त हरिवशपुराणके आधारपर कई पृष्ठोमे ऋषिदत्ताकी कुछ विस्तृत कथा देते हुए भी, जिनसेनाचार्यका एक भी वाक्य ऐसा उद्धृत नही किया जिससे गंधर्व - विवाहका पता चलता । सारी कथामेसे नीचे लिखे कुल दो वाक्य उद्धृत किये गये हैं जो दो पद्योके दो चरण हैं 'ऋतुमत्यार्यपुत्राह यदि स्यां गर्भधारिणी । "
"पृष्ठस्तथा [तः ] सतामाह या [ मा] कुलाभू प्रिये शृणु" इनमेसे पहले चरणमे ऋषिदत्ताके प्रश्नका एक अश और दूसरे शीलायुधके उत्तरका एक अश है । समालोचकजी कहते हैं कि कामक्रीडाके अनन्तरकी बातचीतमे जव ऋषिदत्ताने शीलायुधको 'आर्यपुत्र' कहकर ओर शीलायुधने ऋषिदत्ताको 'प्रिये' कहकर सवोधन किया तो इससे उनके गधर्व विवाहका पता चलता है—यह मालूम होता है कि उन्होने आपस मे पतिपत्नी होनेका ठहराव कर लिया था और तभी भोग किया था, क्योकि "आर्यपुत्र जो विशेषण है यह पतिके लिये ही होता है" और " जो प्रिये विशेषण है यह पत्नीके लिये ही होता है ।" इसी
---