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विवाह-क्षेत्र-प्रकाश
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लिया जाता था जिस तरह कि एक रत्न सस्कारके योगसे उत्कर्षको प्राप्त होता है अथवा सुवर्ण-धातु सस्कारको पाकर शुद्ध हो जाता है । इसीसे यह प्रसिद्धि चली आती है-"कन्यारलं दुष्कुलादपि" । अर्थात् दुष्कुलसे भी कन्यारत्न ले लेना चाहिए । उस समय पितृकुल और मातृकुलकी शुद्धिको लिये हुए 'सज्जाति' दो प्रकारकी मानी जाती थी--एक शरीर-जन्मसे और दूसरी सस्कार-जन्मसे । शरीर-जन्मसे उत्पन्न होनेवाली सज्जातिका सद्भाव प्राय आर्यखण्डोमे माना जाता था'-म्लेच्छखण्डोमे नही। म्लेच्छखण्डोमे तो सस्कार-जन्मसे उत्पन्न होनेवाली सज्जातिका भी सद्भाव नही बनता, क्योकि वहॉकी भूमि धर्मकर्मके अयोग्य है-उसका वातावरण ही बिगडा हुआ है। हॉ, वहाँके जो लोग यहाँ आ जाते थे वे सस्कारके बलसे सज्जातिमे परिणत किये जा सकते थे और तब उनकी म्लेच्छसज्ञा नही रहती थी। यहाँकी जो व्यक्तियों शरीर-जन्मसे अशुद्ध होती थी उन्हे भी अपने धर्ममे दीक्षित करके, सस्कार-जन्मके योगसे सज्जातिमें परिणत कर लिया जाता था और इस तरहपर नीचोको ऊंच बना लिया जाता था। ऐसे लोगोका वह सस्कार-जन्म
१. सज्जन्मप्रतिलंमोऽयमावत विशेषत ।
सता देहादिसामग्रयां श्रेय सूते हि देहिनाम् ॥८॥ शरीरजन्मना सैषा सजातिरुपवर्णिता । एतन्मूला यतः सर्वा. पुंसामिष्ठार्थसिद्धयः ॥८॥ सस्कारजन्मना चान्या सजातिरनुकीर्त्यते । यामासाय द्विजन्मत्व भव्यात्मा समुपाश्नुते ॥८९॥
-आदिपुराण, ३८वॉ पर्व।