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विवाह-क्षेत्र प्रकाश जरूरी था और उसे उद्धृत न, करनेसे उसके अर्थमे अमुक बाधा आ गई। वास्तवमे वह अपने विपयका एक स्वतत्र पद्य है और उसमे ‘म्लेच्छाचारो हि' और 'इति स्मृतम्' ये शब्द साफ बतला रहे हैं कि उसमे 'हिसाया रतिः' (हिंसामे रति ) आदि रूपसे जिस आचारका कथन है वह निश्चयसे म्लेच्छाचार हैम्लेच्छोका सर्व सामान्याचार है। 'इति स्मृतम्' शब्दोका अर्थ होता है ऐसा कहा गया, प्रतिपादन किया गया अथवा स्मृतिशास्त्र-द्वारा विधान किया गया। हाँ, अगले पद्यका अर्थ इस पद्यपर अवलम्बित जरूर है और वह अगला पद्य, जिसे समालोचकजीने भी उद्धृत किया है, इस प्रकार है -
सोऽस्त्यमीषा च यद्वेदशास्त्रार्थमधमद्विजाः। तादृश बहुमन्यन्ते जातिवादावलेपत. ॥ ४२-१८५ ॥
इस पद्यमे बतलाया गया है कि 'वह (पूर्व पद्यमे कहा हुआ ) म्लेच्छाचार इन ( अक्षर-म्लेच्छो ) मे भी पाया जाता है, क्योकि ये अधमद्विज अपनी जातिके घमडमे आकर वेदशास्त्रोके अर्थको उस रूपमे बहुत मानते हैं जो उक्त म्लेच्छाचारका प्रतिपादक है।' और इस तरहपर जो लोग वेदार्थका सहारा लेकर यज्ञो तथा देवताओकी बलिके नामसे बेचारे मूक पशुओकी घोर हिंसा करते तथा मास खाते हैं उनके उस आचारको म्लेच्छाचारकी उपमा दी गई है और उन्हे कथचित् अक्षरम्लेच्छ' ठहराया गया है। इससे अधिक इस कथनका ग्रन्थमे कोई दूसरा प्रयोजन नही है। इस पद्यके "सोस्त्यमीषा च" शब्द साफ बतला रहे हैं कि इससे पहले म्लेच्छोके सर्वसाधा
१. ऐसे लोगोको, किसी भी रूपमें उनकी जातिको सूचित किये विना, केवल म्लेच्छ नामसे उल्लेखित नहीं किया जाता ।