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युगवीर-निवन्धावली
है कि उस समय विवाहमे गोत्रादिके नियमोकी कोई कल्पना नही थी, जरूरत पडनेपर बादको उनकी सृष्टि की गई और तभीसे उस प्रकारके कुटुम्बमे होनेवाले शादी-सम्बन्ध वद किये गये।
इस अवतरणके बाद पडितजीने, आजकल वैसे विवाहोकी योग्यताका निषेध करते हुए यह विधान किया है कि यदि धर्मके वास्तविक स्वरूपको समझकर लोगोमे धर्मकी स्वाभाविक( पहले जैसी ) प्रवृत्ति हो जाय तो आजकल भी ऐसे विवाहोसे हमारी कोई हानि नही हो सकती । यथा
"इसलिये यह बात सिद्ध है कि वसुदेव और देवकी कैसे विवाहोकी इस समय योग्यता नही । । लेकिन हॉ, यदि हम इस बातकी ओर लीन हो जायँ कि जो कुछ हमारा हितकारी है वह धर्म है। हम वास्तविक धर्मका स्वरूप समझ निकले हिताहितका विवेक हो जाय हमारे धार्मिक कार्य किसी प्रेरणासे न होकर स्वभावत हो निकले, विपय-लालसाको हम अपने सुखका केन्द्र न समझे । उस समय देवकी और वसुदेव कैसे विवाहोसे हमारी कोई हानि नही हो सकती।"
इस सब कथनसे कोई भी पाठक क्या यह नतीजा निकाल सकता है कि पण्डित गजाधरलालजीने देवकी और वसुदेवके पूर्वसम्बन्धके विपयमे लेखकसे कोई भिन्न बात कही है अथवा कुटुम्बके नाते देवकीको वसुदेवकी भतीजी माननेसे इन्कार किया है ? कभी नही, बल्कि उन्होने तो अपने लेखके अन्तमे इनके विवाहकी बाबत लिखा है कि वह "अयुक्त न था, उस समय यह रीति-रिवाज जारी थी।" और उसकी पुष्टिमे अग्रवालोका दृष्टात दिया है। फिर नही मालूम समालोचकजीने किस बिरतेपर उनका वह 'रानी