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युगवीर-निवन्धावली
"रानी नन्दयशा इस दशार्ण नगरमे देवसेनकी धन्या नामक स्त्रीसे यह देवकी उत्पन्न हुई है।"
वेशक, समालोचकजी । लेखकको इस भाषा-हरिवशपुराणके पृष्ठोको पलट कर प्रकृत पृष्ठको देखनेका कोई अवसर नही मिला। परन्तु अव आपकी सूचनाको पाकर जो उसे देखा गया तो उसमे बड़ी ही विचित्रताका दर्शन हुआ है। वहाँ प० गजाधरलालजीने उक्त वाक्यको लिये हुए, एक श्लोकका जो अनुवाद दिया है वह इस प्रकार है -
"और रानी नन्दयशाने उन्ही पुत्रोकी माता होनेका तथा रेवती धायने उनकी धाय होनेका निदान बाँधा । सो ठीक ही है-पुत्रोका स्नेह छोडना बडा ही कठिन है। इसके बाद वे सब लोग समीचीन तपके प्रभावसे महाशुक्र स्वर्गमे सोलह सागर आयुके भोक्ता देव हुये। वहाँसे आयुके अन्तमे चयकर शखका जीव रोहिणीसे उत्पन्न वलभद्र हआ है। रानी नन्दयशा श्रेष्ठ इस दशार्ण नगरमे देवसेनकी धन्या नामक स्त्रीसे यह देवकी उत्पन्न हुई है और धाय भद्रिलसा नगरमै सुदृष्टी नामक सेठकी अलका नामकी स्त्री हुई है ॥१६७॥" ।
यह जिनसेनके जिस मूल श्लोक न० १६७ का अनुवाद किया गया है वह हरिवशपुराणके ३३वें सर्गमे निम्न प्रकारसे पाया जाता है -
"धात्री मानुष्यक प्राप्ता पुरे भद्रिलसाह्वये ।
सुदृष्टिश्रेष्ठिनो भार्या वर्तते ह्यलकाभिधा।" कोई भी सस्कृतका विद्वान् इस श्लोकका वह अनुवाद नही कर सकता जो कि प० गजाधरलालजीने किया है और न इसका वह कोई भावार्थ ही हो सकता है। इस श्लोकका सीधा