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युगवीर-निवन्धावली
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व्यक्त करनेके लिये लिखा है । परन्तु गजाधरलालजीने इसपर अपनी ओरसे देवकी के माता-पिता और उत्पत्ति स्थानके नामोकी मगजी भी चढा दी है, और उसमे दशार्ण नगरसे पहले उनका 'इस' शब्दका प्रयोग और भी ज्यादा खटकता है, क्योकि देवकी और वसुदेवजीसे यह सव कथा कहते हुए अतिमुक्तक मुनि उस समय दशार्ण नगरमे उपस्थित नही थे, बल्कि मथुराके पासके सहकार वनमे उपस्थित थे । इसलिये उनकी ओरसे 'इस' आशयके शब्दका प्रयोग नही बन सकता । परन्तु यहाँपर अनुवादकी भूले प्रकट करना कोई इष्ट नही है, मैं इस कथनपरसे सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता हूँ कि जिस बातको समालोचकजीने बडे दर्प के साथ लेखकको दिखलाना चाहा था, उसमे कुछ भी सार नही है, वह जिनसेनाचार्य के हरिवशपुराणसे बाहरकी चीज है और इसलिये उसके आधारपर कोई आपत्ति नही की जा सकती । समालोचकजीके सामने जिनसेनका हरिवशपुराण मौजूद थाउन्होंने उसके कितने ही वाक्य समालोचनामे दूसरे अवसरोपर उद्धृत किये हैं—वे स्वय इस बातको जानते थे कि प० गजाधरलालजीने जो बात अनुवादमे कही है वह मूलमे नही हैयदि मूलमे होती तो वे सबसे पहले उस मूलको उद्धृत करते और तब कही पीछेसे अनुवादका नाम लेते — फिर भी उन्होने गजाधरलालजीके मिथ्या अनुवादको प्रमाणमे पेश किया, यह बडे ही दु साहसकी बात है । उन्हे इस बातका जरा भी
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१ यथाः—'तहाँ ते चयकरि रेवती धायका जीव भद्दलपुर विषै सुदृष्टि नामा सेठ कै अल्का नामा स्त्री है ॥ ६७ ॥ अर राणी नदियसाका जीव यह देवकी भई ताकै वे गगदेव आदि पूर्वले पुत्र स्वर्गत चयकरि याजन्मविषै भी पुत्र होइगे ||” १६८ ॥