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युगवीर-निवन्धावली
है कि उस समय विवाहमे गोत्रका विचार वा बचाव नहीं किया जाता था , नहीं मालूम परवारोमे आजकल आठ-आठ वा चारचार साकें ( शाखाएँ ) किस आधारपर मिलाई जाती हैं।"
इस लेखके उत्तरमे पडितजीने दूसरा लेख, वही 'शुम चिह्न' शीर्षक डालकर, १६ जून सन् १९१३ के जैनगजटमे प्रकाशित कराया, उसमे इस प्रमाणके किसी भी अशपर कोई आपत्ति नही की गई और न दो श्लोकोके अर्थपर आपत्ति करनेके सिवाय, दूसरे ही किसी प्रमाणको अप्रमाण ठहराया गया। जैनमित्रके सम्पादक ब्रशीतलप्रसादजीने भी उक्त प्रमाणपर कोई आपत्ति नहीं की, हालांकि उन्होने लेखपर दो सम्पादकीय नोट भी लगाये थे।
(३) इसके छह वर्ष बाद, "शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण' न०२ के नामसे वसुदेवजीके उदाहरणका यह प्रकृत लेख लिखा गया और अप्रैल सन् १६१६ के 'सत्योदय मे प्रकाशित हुआ। उस वक्त इस लेखपर 'पद्मावतीपुरवाल' के सम्पादक प० गजाधरलालजी न्यायतीर्थने अपना विस्तृत विचार प्रकट किया था और उसमे इस बातको स्वीकार किया था कि देवकी उग्रसेनकी पुत्री और वसुदेवकी भतीजी थी। उनका वह विचार-लेख श्रावण मासके 'पद्मावतीपुरवाल' अक न० ५ मे प्रकाशित हुआ था। इसके बाद सितम्बर सन् १६२० के 'जैनहितैषी' मे यही लेख प्रकाशित हुआ और वहाँसे चार वर्षके बाद अब इस पुस्तकमे उद्धृत किया गया है। ___ इस तरह देवकी और वसुदेवके सम्बन्धका यह विषय इस
१. अर्थ-विषयक इस आपत्तिका उत्तर 'अर्थ-समर्थन' नामके लेख-द्वारा दिया गया, जो १७ सितम्बर सन् १९१३ के 'जैनमित्र' में प्रकाशित हुआ था और जो अव इसी निवन्धावली द्वितीय भाग पृष्ठ ३१ पर मुद्रित है।