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युगवीर-निवन्धावली
वेश्यावृत्तिको छोडकर, यदि अपने-अपने प्रधान प्रेमीके घर बैठजायँ—गृहस्थधर्ममे दीक्षित होकर गृहस्थन बन जायँ अथवा ऐसा बननेके लिये उन्हे मजबूर किया जासके और इस तरह भारतसे वेश्यावृत्ति उठ जाय तो इससे भारतका नैतिकपतन रुककर उसका बहुत कुछ कल्याण हो सकता है। वे वेश्यागमन' या व्यसनकी अपेक्षा एक वेश्यासे वेश्यावृत्ति छुडाकर, शादी कर लेनेमे कम पाप समझते हैं । और, काम-पिशाचके वशवर्ती होकर, वेश्याके द्वारपर पडे रहने, ठोकरे खाने, अपमानित तथा पददलित होने और अनेक प्रकारकी शारीरिक तथा मानसिक यत्रणाएँ सहते हुए अन्तको पतितावस्थामे ही मर जानेको घोर पाप तथा अधर्म मानते हैं । अस्तु ।
कुटुम्बमें विवाह चारुदत्तके उदाहरणकी सभी आपत्तियोका निरसनकर अब मैं दूसरे— वसुदेवजीवाले-उदाहरणकी आपत्तियोको लेता हूँ।
इस उदाहरणमे सबसे बड़ी आपत्ति 'देवकीके विवाह' पर की गई है। देवकीका वसुदेवके साथ विवाह हुआ, इस बातपर, यद्यपि कोई आपत्ति नही है, परन्तु 'देवकी रिश्तेमे वसुदेवकी भतीजी थी' यह कथन ही आपत्तिका खास विषय बनाया गया है और इसे लेकर खूब ही कोलाहल मचाया गया तथा जमीनआसमान एक किया गया है। इस आपत्तिपर विचार करनेसे पहले, यहाँ प्रकृत आपत्ति-विषयक कथनका कुछ थोडा-सा पूर्व इतिहास दे देना उचित मालूम होता है और वह इस प्रकार है -
(१) सन् १९१० मे, लाहौरसे प० दौलतरामजी-कृत भापा हरिवशपुराण प्रकाशित हुआ और उसकी विषय-सूचीमे