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युगवीर- निवन्धावली
अर्थ देते हुए, 'स्वीकृता' की तरह 'ऊढा' का अर्थ भी 'स्वीकार करली' किया है और इस तरह यह घोषित किया है कि 'ऊढा' ( विवाहिता ) ओर 'स्वीकृता' दोनो एकार्थवाचक पद हैं ।
ऐसी हालत मे यह बात विलकुल निर्विवाद और नि सन्देह जान पडती है कि चारुदत्तने वसन्तसेना वेश्याके साथ विवाह किया था -- उसे अपनी स्त्री वनाया था और उसी बातका उल्लेख उनकी तरफसे उक्त श्लोकमे किया गया है । और इसलिए उक्त श्लोकमे प्रयुक्त हुए "स्वीकृतवान्" पदका स्पष्ट अर्थ 'विवाहित - वान्" समझना चाहिए ।
खेद है कि इतना स्पष्ट मामला होते हुए भी, समालोचकजी लेखकके व्यक्तित्वपर आक्षेप करते हुए लिखते हैं
“चारुदत्तने वसन्तसेनाको घरमे नही डाल लिया था और न उसे स्त्रीरूपसे स्वीकृत किया था, जैसा कि बाबूसाहवने लिखा है । ये दोनो बातें शास्त्रोमे नही है । न जाने बाबू साहबने कहाँसे लिख दी हैं, बाबूसाहब की यह पुरानी आदत है कि जिस वातसे अपना मतलब निकलता देखते हैं उसी बातको अपनी ओर मिलाकर झट लोगोको धोखेमे डाल देते हैं । "
समालोचकजीके इस लिखनेका क्या मूल्य है, और इसके द्वारा लेखकपर उन्होंने कितना झूठा तथा निन्द्य आक्षेप किया है, इसे पाठक अब स्वय समझ सकते हैं। समझमे नही आता कि एक वेश्यासे विवाह करने या उसे स्त्री बना लेनेकी पुरानी बातको मान लेनेमे उन्हे क्यो सकोच हुआ और उसपर क्यो इतना पाखड रचा गया ? वेश्याओसे विवाह करनेके तो और भी कितने ही उदाहरण जैनशास्त्रोमे पाये जाते हैं, जिनमेसे 'कामपताका' वेश्याका उदाहरण ऊपर दिया ही जा चुका है, और 'पुण्यात्रवकथा