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विवाह-क्षेत्र प्रकाश
व्यसनादि सहित सारा पूर्व वृत्तात सुनकर और उससे सन्तुष्ट होकर चारुदत्तकी प्रशसामे निम्न वाक्य कहे
चारुदत्तस्य चोत्साह तुष्टस्तुष्टाव यादवः ॥ १८ ॥ अहो चेष्टितमार्यस्य महौदार्यसमन्वितम् । अहो पुण्यवलं गण्यमनन्यपुरुपोचितम् ॥ १८२ ।। न हि पौरुषमीक्षं विना दैवबलं तथा। ईक्षान् विभवान् शक्याः प्राप्तुं ससुरखेचराः ।। १८३ ।।
-हरिवशपुराण इसकी हिन्दी-भापामे प० गजाधरलालजीने इन्ही प्रशसावाक्योको निम्न प्रकारसे अनुवादित किया है :
"कुमार वसुदेवको परम आनद हुआ, उन्होने चारुदत्तकी इस प्रकार प्रशसा कर [की] कि-आप उत्तम पुरुष हैं, आपकी चेष्टा धन्य है, उदारता भी लोकोत्तर है, अन्य पुरुषोके लिये सर्वथा दुर्लभ यह आपका पुण्यबल भी अचिन्त्य है ॥१८१-१८२॥ विना भाग्यके, ऐसा पौरुप होना अति कठिन है, ऐसे उत्तमोत्तम भोगोको मनुष्योकी तो क्या बात, सामान्य देव विद्याधर भी प्राप्त नहीं कर सकते।
और हरिवशपुराण के २१ वे सर्गके अन्तमे श्रीजिनसेनाचार्यने चारुदत्तको भी वसुदेवकी तरह रूप और विज्ञानके सागर तथा धर्म-अर्थ-कामरूपी त्रिवर्गके अनुभवी अथवा उसके अनुभवसे सतुष्टचित्त प्रकट किया है, और इस तरहपर दोनोको एक ही विशेषणो-द्वारा उल्लेखित किया है -
इत्यन्योन्यस्वरूपज्ञा रूपविज्ञानसागरा.। त्रिवगोनुभवप्रीताश्चारुदत्तादयः स्थिता ॥ १८५ ।। इन सब बातोसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि चारुदत्त अपने