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विवाह-क्षेत्र प्रकाश
प० दौलतरामजीने अपने हरिवशपुराणमे, इस श्लोककी भापा टीका इस प्रकार दी है --
"और वह कलिगसेना वेश्याकी पुत्री वसतसेना पतिव्रता मेरे विदेश गए, पीछे अपनी माताका घर छोडि आर्यानिके निकट श्रावकवत अगीकार करि मेरी मातानिके निकट आय रही। मेरी माताकी अर' स्त्रीकी वानै अति सेवा करी। सो दोऊ ही वात अतिप्रसन्न भई। अर जगतिमे बहुत वाका जस भया सो मैं हूँ अति प्रसन्न होय वाहि अगीकार करता भया ।"
यह श्लोक चारुदत्तजीने, वसुदेवजीको अपना पूर्व परिचय देते हुए, उस समय कहा है जव कि गधर्वसेनाका विवाह हो चुका था और चारुदत्तको विदेशसे चम्पापुरी वापिस आए बहुतसे दिन बीत चुके थे--गधर्वविद्याके जानकार विद्वानोकी महीने-दर-महीनेकी कई सभाएँ भी हो चुकी थी।
इस सपूर्ण वस्तुस्थिति, कथनसम्बन्ध और प्रकरणपरसे यद्यपि, यही ध्वनि निकलती है और यही पाया जाता है कि चारुदत्तने वसन्तसेनाको अपनी स्त्री बना लिया था, और कोई भी सहृदय विचारशील इस बातकी कल्पना नही कर सकता कि चारुदत्तने वसतसेनाको, उससे काम-सेवाका कोई काम न लेते हुए, केवल एक खिदमतगारिनी या नौकरनीके तौरपर अपने पास रक्खा होगा—ऐसी कल्पना करना उस सद्विचारसम्पन्नाके साथ न्याय न करके उसका अपमान करना है, फिर भी समालोचकजीकी ऐसी ही विलक्षण कल्पना जान पड़ती है। इसीसे आप अपनी ही बातपर जोर देते हैं, और उसका आधार उक्त श्लोकको बतलाते है । परन्तु समझमे नही आता, उक्त श्लोकमे ऐसी कौन-सी बात है जिसका आप आधार लेते हो अथवा जिससे आपके अर्थका समर्थन