Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
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श्रद्धान करनेवाला सिद्ध होगा। अतः आकुलतारहित होकर निर्दोषरूपसे श्रध्दानको आत्माका ही गुण मानलो । यहां वहां व्यर्थ भटकनेसे कोई लाभ नहीं।
न हि श्रद्धाताहमिति प्रतीतिरचेतनस्य प्रधानस्य जातचित्सम्भाव्यते कलशादिवत् । यतोयमात्मैव श्रद्धाता निराकुलं न स्यात् ।
___मैं श्रद्धान करनेवाला हूं इस प्रकारकी प्रतीति होना अचेतन प्रधानके कभी भी सम्भावित नहीं है । जैसे कि घट आदिक जड पदार्थोके श्रद्धान करना नहीं सम्भवता है, जिससे कि यह आत्मा ही श्रद्धान करनेवाला निन्दरूपसे सिद्ध न हो सके । भावार्थ-आत्मा ही श्रद्धान करनेवाला है, त्रिगुणात्मक प्रकृति नहीं ।
भ्रान्तेयमात्मनि प्रतीतिरिति चेन, बाधकाभावात् । नात्मधर्मः श्रद्धानं भङ्गुरत्वाद्धटवदित्यपि न तद्बाधकं ज्ञानेन व्यभिचारित्वात् । न च ज्ञानस्यानात्मधर्मत्वं युक्तमात्मधर्मत्वेन प्रसाधितत्त्वात् । ततः सूक्तमात्मस्वरूपं दर्शनमोहरहितं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दशनस्य लक्षणमिति ।
आत्मामें श्रद्धान गुणको सिद्ध करानेवाली यह पूर्वोक्तप्रतीति भ्रमरूप है, ऐसा तो नहीं कहना। क्योंकि जिस बुद्धिके उत्तरकालमें बाधक प्रमाण उत्थित हो जाता है वह भ्रांत मानी जाती है । किंतु आत्मामें श्रध्दानको सिद्ध करनेवाली प्रीतिका कोई बाधक प्रमाण नहीं है । बाधकोंके असम्भव होनेसे प्रमाणताकी प्रतीति हो जाती है । यहांपर सांख्य अपने मतकी पुष्टि करनेके लिए एक अनुमान बोलते हैं कि श्रद्धान करना (पक्ष ) आत्माका धर्म नहीं है ( साध्य ) क्योंकि तत्त्वोंका श्रद्धान करना नाश होनेवाला भाव है ( हेतु ) जैसे कि घट उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है, अत आत्माका स्वभाव नहीं है, तैसे ही कूटरथनित्य माने गये आत्माका स्वभाव नष्ट होनेवाला श्रद्धान नहीं हो सकता है । नित्य वस्तु के स्वभाव भी नित्य ही होते हैं । यों यह सांख्योंका अनुमान भी उस प्रतीतिका बाधक नहीं है, क्योंकि अनुमानमें दिये गये भङ्गुरत्व हेतुका ज्ञान करके व्यभिचार होता है अर्थात् विनाशीकपना ज्ञानमें है, वहां आत्माका धर्म न होना रूप साध्य नहीं है। कारण कि ज्ञान आत्माका स्वाभाविक धर्म है । यदि कापिल यों कहें कि ज्ञान भी आत्मासे भिन्न कही गयी प्रकृतिका धर्म है। आत्माका नहीं, सो यह कहना युक्तियोंसे शून्य है, क्योंकि ज्ञानको आत्माके धर्मपना स्वरूपकरके हम पहिले भले प्रकार सिद्ध कर चुके हैं । इस कारण हमने यह बहुत अच्छा कहा था कि दर्शन मोहनीय कर्मके उदयसे रहित हुए आत्माका स्वभाव, तत्त्वार्थीका श्रध्दान करना है और वह सम्यग्दर्शनका लक्षण है । यहांतक इस प्रकरणको समाप्त कर दिया है ।