Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके ,
होगया था, तैसे ही अहंकारके विषयभूत अर्थोंको भी बुध्दिके द्वारा निर्णीत होजानेके कारण बुध्दिको भी समीचीनता प्राप्त होजावेगी । बुध्दिमें गांठकी समीचीनता.न मानी जाय । भावार्थ---मैं कर्ता हूं, मैं विद्वान् हूं, मैं सुखी हूं, इत्यादि अहङ्कारमें समीचीन रूपसे आरूढ हुए अर्थोका बुध्दिके द्वारा निर्णय हुआ है, पुत्रने अपनी सम्पत्ति माताको सोंपदी और माताने भोक्ता पुरुषको देदी। तथा इसी प्रकार अहंकारके परिणामस्वरूप मनकी समीचीनतासे ही अहंकारका भी समीचीनपना औपाधिक भाव क्यों न मानलिया जावे, अहंकारकी गांठका समीचीनपना न होवे । क्योंकि मनके द्वारा संकल्प किये गये स्थानभूत अर्थोंमें ही उस अहंकारकी प्रवृत्ति होनेकी सांख्योंने बढियां कल्पना की है। भोजन करनेके लिये मैं मित्रके घरपर जाऊंगा, वहां दही होगा या गुड मिलेगा अथवा मोदक आदि बने होंगे, इस प्रकारका मनके द्वारा सङ्कल्प होनेपर ही मैं उनको जानूंगा, मैं खाऊंगा, ऐसे अहंकारभाव उत्पन्न हुआ करते हैं तथा और भी सुनिये कि मनमें भी अपने घरका समीचीनपना न मानो, किन्तु मनसे अधिष्ठित मानी गयी पांच ज्ञानेन्द्रियोंकी समीचीनतासे मनमें औपाधिक समीचीनताको स्वीकार कर लो, क्योंकि ज्ञानेन्द्रियोंसे समीचीन आलोचना किये गये पदार्थोमें ही मनके द्वारा संकल्प होना उत्पन्न होता है । तैसे ही इन्द्रियोंके भी स्वयं अपना गांठका समीचीनपना मत मानो । तुम्हारे मतके अनुसार इन्द्रियोंको भी समीचीनपना दूसरे पदार्थोसे आया हुआ क्यों न मान लिया जावे ? क्योंकि हम कह देंगे कि अपने प्रगट करनेवाले कारणोंकी समीचीनता, निर्मलता, इन्द्रियवृत्ति, अदृष्ट, आदिके द्वारा इन्द्रियोंमें भी समीचीनता बाहरसे औपाधिक आ गयी है । ऐसा ही क्यों न माना जावे ? क्योंकि इन्द्रियोंके प्रगट करनेवाले अर्थोकी अपनी मुख्य समीचीनता आदिसे ही इन्द्रियोंमें समीचीनता आ जावेगी। आप सांख्योंने तो यह मार्ग पकड़ लिया है कि जबतक ऋण लेनेसे कार्य चले तब लौ घरका पैसा कौन व्यय करे । अपनेको दरिद्र ही पुकारना अच्छा है। इस प्रकार आपके द्वारा मानी हुयी तत्त्व-मालामें समीचीनताका निर्णय करानेवाला कोई उपाय न रहा । यदि आप इन्द्रिय आदि यानी मन, अहंकार, बुदि और प्रधान, इनमें अपने व्यञ्जक अर्थोसे समीचीनताको न लाकर अपनी अपनी गांठकी स्वाधीन मुख्य समीचीनताको मानोगे, अथवा पूर्व पूर्वके प्रकृत तत्त्वोंमें उत्तरवर्ती विकृत तत्त्वोंसे समीचीनपनेको न लाकर स्वयं अपना ही घरका सम्यक्पना मानोगे तो उन ही प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार, मन, ज्ञानेन्द्रियां और अर्थोके समान आत्मामें भी वास्तविकरूपसे गांठका वह समीचीनपना माना जावे । अतः सिध्द हुआ कि आत्माका सम्यक्त्व गुण स्वयं निजका है। जड प्रकृतिकी ओरसे आया हुआ नहीं है।
एवं प्रधानसम्यक्त्वाच्चैतन्यसम्यक्त्वेऽभ्युपगम्यमानेऽतिप्रसञ्जनमुक्तम् । तत्त्वतस्तु___ इस प्रकार सांख्योंके विचारानुसार प्रधानके समीचीनपनेसे आत्म-संबंधी चैतन्यको समीचीनपना स्वीकार करनेपर अतिप्रसंग दोष आवेगा । ऐसा हम जैन विद्वान् सांख्योंके प्रति आपादन करना कह चुके हैं । वास्तविक रूपसे देखा जावे तब तो यह बात है कि