Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके
प्रधानस्य विवर्तोऽयं श्रद्धानाख्य इतीतरे । तदसत्पुंसि सम्यक्त्वभावासंगात्ततो परे ॥ १३ ॥
तत्त्वोंका श्रद्धान करना नामका यह भाव सत्त्व गुण, रजोगुण और तमो गुण इन तीन गुणोंकी साम्यअवस्थारूप प्रकृतिका परिणाम है, इस प्रकार अन्य सांख्यमती कह रहे हैं। सो उनका कहना प्रशेसनीय नहीं है। क्योंकि ऐसा माननेपर उस प्रकृतिसे सर्वथा भिन्न माने गये आत्मामें सम्यक्त्वका सद्भाव नहीं हो सकता है, अर्थात् आत्मामें सम्यक्त्वके अभावका प्रसंग हो जावेगा। प्रकृतिका बना हुआ श्रद्धान उससे सर्वथा भिन्न हो रहे आत्मामें सम्यग्दर्शन गुणको व्यवस्थापित नहीं कर सकता है ।
न हि प्रधानस्य परिणामः श्रद्धानं ततोऽपरस्मिन् पुरुषे सम्यक्त्वमिति युक्तं लक्ष्यलक्षणयोर्भिन्नाश्रयत्वविरोधादग्न्युष्णत्ववत् ।
सम्यग्दर्शनका लक्षण तत्त्वार्थीका श्रद्धान करना है । यहांपर श्रद्धानको नियमसे प्रधानका परिणाम माना जावे और उस प्रधान ( प्रकृति ) से सर्वथा भिन्न कहे गये दूसरे तत्त्व आत्मामें समयदर्शन गुण माना जावे। इस प्रकारका कहना युक्तियोंसे सहित नहीं है। क्योंकि लक्ष्यवचन और लक्षणवचनोंके वाच्यार्थीका सामानाधिकरण्य होता है । जैसे कि चेतन और आत्माका । तभी तो न्यायदी - पिकामें नैयायिकके द्वारा लक्षणके लक्षणमें असाधारणधर्मके वचनका आग्रह करनेपर ग्रंथकारने सामानाधिकरण्यके न होनेका प्रसंग दिया है । लक्ष्य तो कहना ही है, उद्देश्य दलमें यदि लक्षण धर्म भी कहना आवश्यक पड गया तो लक्ष्य और लक्षणका शब्द सामानाधिकरण्य नहीं बन पायगा । नैयायिक कहते हैं कि असाधारणधर्मको बोलो, तब लक्षण होगा । आत्माका धर्म ज्ञान है और अग्निका उष्णता है । यदि ज्ञान कहेंगे तो " ज्ञानं आत्मा ” कहना पडेगा, तब तो ज्ञान रहता है आत्मामें, और आत्मा शरीरमें रहता है, यह लक्ष्य और लक्षण में व्यधिकरण दोष हुआ। जैनोंके सदृश कथञ्चित् अभेदको नैयायिक मानते नहीं हैं । यदि ज्ञानवान् आत्मा कहते हैं तो शद्बका या अर्थका सामानाधिकरण्य बन गया, किंतु असाधारण धर्मका कथन न हो सका, ज्ञानवान् तो धर्मी है धर्म नहीं। अतः असाधारण धर्मको लक्षण भलें ही कहो, किंतु धर्मको बुलवानेका आग्रह न करो। ऐसे ही अग्निकी उष्णतापर भी लगा लेना । यों लक्ष्यधर्मी वचनका लक्षणधर्म कथनके साथ • समानाधि करणपना नहीं बननेसे नैयायिकके यहां असम्भव दोष आता है । लक्षणको कहनेका आग्रह ढीला भी करदिया जाय, तो भी दण्डादि लक्षणोंमें अव्याप्ति और लक्षणाभास माने गये अव्याप्तमें अतिव्याप्ति आ जायेगा | हां ! अनेकांत मतमें तो अभेददृष्टिसे अग्नि और उष्णताका एक ही अधिकरण हो जाता है, अन्य मतोंके अनुसार माना गया लक्ष्य कहींपर रहे और लक्षण कहीं अन्यत्र रहे, इस प्रकार लक्ष्य और लक्षणके भिन्न भिन्न अधिकरण होनेका विरोध है, जैसे कि जहाँ ही अग्निपना, वहीं उष्णपना है । तभी तो अनि उष्ण है ऐसी समानाधिकरणता होनेपर लक्ष्यलक्षणभाव बन जाता