Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है या वह केवलज्ञानके द्वारा जाना जाता है । दूसरेके वीतराग सम्यक्त्वक अनुमान नहीं हो सकता है ।
कथमिदानीमप्रमत्तादिषु सूक्ष्म सांप यान्तेषु सद्दर्शनं प्रशमादेरनुमातुं शक्यम् ? निर्णय पायानां कायादिव्यवहारविशेषाणामभावादेव । न हि तेषां कश्चिद्यापारोऽस्ति वीतरागवत्, व्यापारे वा तेषामप्रमत्तत्वादिविरोधादिति कश्चित् । सोऽप्यभिहितानभिज्ञः, सर्वेषु सरागेषु सद्दर्शनं प्रशमादिभिरनुमीयत इत्यनभिधानात् । यथासंभवं सरागेषु वीत - रागेषु च सद्दर्शनस्य तद्नुमेयत्वमात्मविशुद्धिमात्रत्वं चेत्यभिहितत्वात् ।
यहां कोई कहता है कि तो बताओ ! इस समय सातवेंसे आदि लेकर दशवें सूक्ष्मसां पराय पर्यन्त गुणस्थानों में सम्यग्दर्शनका प्रशम आदिकसे कैसे अनुमान किया जासकता है ? सरागसंयमके समान सरागसम्यग्दर्शन भी दशवे गुणस्थानतक पाया जाता है। सातवें सातिशय अप्रमत्तसे लेकर ऊपरके गुणस्थानोंमें ध्यान अवस्था होजाती है। चलना, बोलना, मुखकी आकृति करना, शरीर चेष्टा करना आदि विशेष व्यवहारोंका वहां सर्वथा अभाव ही है, जो कि उस सम्यक्त्वका निर्णय करानेके उपाय बतलाये गये हैं । अप्रमत्त आदि गुणस्थानवर्ती जीवोंके शरीर आदिका बहिरङ्गक्रियारूप कोई व्यापार नहीं होता है, जैसे कि ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानवाले वीतराग जीवोंके कोई शरीका व्यापार नहीं होता है । यदि अप्रमत्त आदि में भी शरीर या वचनका व्यापार मानोगे तो उनको अप्रमत्तपनेसे आदि लेकर सूक्ष्मसांपरायपने पर्यन्तका विरोध हो जावेगा ! इस कारण शरीरचेष्टा आदिके न होनेसे वहां प्रशम आदिकोंका अनुमान नहीं हो सकेगा, और प्रशम आदिकोंका 'अनुमान किये विना अप्रमत्त आदि जीवोंमें सम्यग्दर्शनका अनुमान नहीं किया जासकता है । यहां - तक कोई कहरहा है । आचार्य कहते हैं कि वह भी हमारे कहे हुए अभिप्रायको ठीक नहीं समझता है । क्योंकि सम्पूर्ण सरागसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सम्यग्दर्शनका प्रशम आदि हेतुओंके द्वारा अनुमान कर ही लिया जाता है, ऐसा नियम हमने नहीं कहा है, जैसे कि धूम हेतुसे सभी अग्नियां नहीं जी जाती हैं । किन्तु जहां जैसा सम्यग्दर्शनके जानने का उपाय सम्भव है, उन सराग जीवोंमें और वीतराग पुरुषोंमें सम्यग्दर्शनका उन प्रशम आदिकोंसे अनुमेयपना और केवल आत्म-विशुद्धि रूपपना है, ऐसा हमने कहा है ।
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तत एव सयोगकेवलिनो वाग्व्यहार विशेषदर्शनात् सूक्ष्माद्यर्थविज्ञानानुमानं न विरुध्यते । इस ही कारणसे यानी यथासम्भवका अनुमान होना माननेपर आठवें, नौवें गुणस्थानके सम्यक्त्वा ज्ञान नहीं हो पाता है, किन्तु तेरहवें गुणस्थानके केवलज्ञानका अनुमान हो जाता है । पूर्णज्ञानका अविनाभावी ज्ञापकहेतु होनेसे ही सयोगकेवली भगवान् के विशेष वचनव्यवहार देखनेसे सूक्ष्म, अन्तरित, दूरार्थ आदि और शेष रथूल अर्थोका विज्ञान है, ऐसा अनुमान करना भी विरुद्ध नहीं पडता है । अर्थात् सर्वभाषामय अर्धमागधी भाषा या सर्वजीवोंको कल्याण करानेवाले द्वादशांग ज्ञानको कहनेवाले विशिष्ट वचनोंके द्वारा भगवान्की सर्वज्ञताका अनुमान कर लिया जाता है ।