Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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'कायचेष्टा, क्वनव्याहार, मुखाकृति, इनकी विशेषताओंके विद्यमान रहनेका भी निर्णय नहीं किया 'जा सकता है, अर्थात् ऐसी कोई विशेषचेष्टा या विशेष वचननिर्णीत नहीं किया जा सकता है, जो कि प्रशांत और संवेगी जीवोंके ही पाये जावें । नृत्यशालामें अनेक पात्र नाना ढंगों के रूपक - दिखलाते हैं और दर्शकोंको वे अभिनय सत्यार्थ मुख्यराजा आदिकोंके सदृश प्रतीत भी होते हैं । ! किंतु विचारनेपर वे सब दृश्य दिखाऊ ही हैं। अतः वेश, आसन, बहिरंगशरीर, वचनकी प्रवृत्ति और . व्यापारोंसे अन्य जीवोंमें पाये जारहे संवेग, आस्तिक्य, शांति, और दयाभावोंका निर्णय करना अशक्य है । आपका ऐसा मन्तव्य होनेपर तब तो हम जैन आपसे यह पूंछते हैं कि उन प्रशम आदि -गुणोंके न होनेपर भी वह शरीर आदिका वैसा विशेष व्यवहार विद्यमान रहता है, यह भी आप कैसे निर्णीत कर लेते हैं ? बताओ । अर्थात् जो मनुष्य प्रशम आदिकोंके होनेपर होनेवाले शरीर आदि के व्यवहारका निश्चय नहीं कर सकता है, वह प्रशम आदिके न होनेपर उन व्यवहारोंकी सत्ताका भी निर्णय नहीं कर सकता है, तो फिर व्यभिचार देना कैसा ? | यानी जब तुमको उन विशेषताओंका ज्ञान ही नहीं है तब प्रशम आदिकोंके न होनेपर भी विशिष्ट कायचेष्टाका हो जाना रूप व्यभिचार दोष भी नहीं उठा सकोगे ।
तत एव संशयोऽस्त्विति चेन्न, तस्य कचित्कदाचिन्निर्णयमन्तरेणानुपपत्तेः स्थाणुपुरुपसंशयवत् । स्वसंताने निर्णयोऽस्तीति चेत्, तर्हि यादृशाः प्रशमादिषु सत्सु कायादिव्यवहारविशेषाः स्वस्मिन्निर्णीतास्तादृशाः परत्रापि तेषु सत्स्वेवेति निर्णीयताम् । यादृशास्तु तेष्वसत्सु प्रतीतास्तादृशाः तदभावस्य गमकाः कथं न स्युः १ संशयित स्वभावास्तु तत्संशयहेतव इति युक्तं वक्तुम् ।
क्योंकि जब हम लोगों के पास शरीरकी चेष्टा, वचन बोलना
आक्षेपकार कहता है कि इस ही कारणसे संशय हो जाओ, दूसरोंके प्रशम आदिको जानने के लिए कोई निर्णीत उपाय नहीं है । आदि प्रशम आदिके होनेपर भी और न होनेपर भी एकसे होते हुए देखे जाते हैं । अतः " एकांतनिर्णयाद्वरं संशयः " इस नीति के अनुसार संशय ही बना रहे। आचार्य समझाते हैं कि इस -प्रकारका कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि किसी स्थानपर किसी कालमें उन धर्मोका निश्चय किये विना उस आक्षेपकको संशय हो जाना भी नहीं बनता है । जैसे कि ठूंठ और पुरुषका संशय उसी जीवको होगा जिसने कि पहिले कभी कहींपर ठूंठ और पुरुषका निर्णय कर लिया होगा । यदि आप बौद्ध यों कहें कि हमने सन्तानस्वरूप अपनी आत्मामें उन प्रशमादिकोंके साथ होनेवाले शरीरचेष्टा आदिकोंका निर्णय कर लिया है, उन धर्मोके सद्भाव और असद्भावका दूसरी आत्माओं में संशय कर लेते हैं, ऐसा कहनेपर तो हम स्याद्वाद सिद्धान्तियोंको यही कहना पडेगा कि जैसे जैसे कायव्यवहार, वचनव्यवहार, चेष्टा आदि विशेष ये प्रशम आदि गुणोंके विद्यमान होनेपर अपनी आत्मामें निर्णीत किये गये हैं तिन ही व्यवहारविशेषोंके सदृश दूसरी शरीरचेष्टा आदिकी विशेषतायें