Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
१२ .
तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
amanho कोई पण्डित दोष उठाता है कि आप जैनोंने दूसरी आत्माओंमें भी प्रशम आदिकसे सराग सम्यग्दर्शनका अनुमान कराना बताया है, इसपर हमारा यह कहना है कि अपनी आत्मामें तो प्रशम, संवेग, आदिकका भले प्रकार निर्णय होजाता है, किन्तु दूसरोंमें प्रशम, संवेगका निर्णय नहीं होपाता है,। माता पिता और गुरुजन क्रोध अवस्था में भी प्रशान्त बने रहते हैं । काठी पुरुष दिखाऊ शान्तिको धारण करता हुआ भी चित्तमें अशान्त है। भरतचक्रवर्ती भोगोंको भोगते हुए भी वैरागी थे । अनेक मोही जीवोंको स्मशानमें थोडी देरके लिये वैराग्य होजाता है आदि संदेहक व्यवहारोंके देखनेसे दूसरी आत्माओंमें प्रशम आदिके सद्भावका संदेह होजाता है । अतः संदिग्धासिद्ध होजानेके कारण प्रशम आदिक गुण दूसरी आत्माओंमें सम्यग्दर्शनके ज्ञापकहेतु नहीं हो सकते हैं। आचार्य उत्तर देते हैं कि इस प्रकारका कहना ठीक नहीं है। क्योंकि अनेक सूदम अतीन्द्रिय पदार्थोका निर्णय करनेके लिये उपाय हैं । यों तो स्थूल बुद्धिसे धुआं, भाप और गगन-धूलिके भेदको नहीं समझनेवाला पुरुष अग्निको सिद्ध करनेमें धूम हेतुको भी संदिग्धासिद्ध कर देवेगा, हां ! विचार किये गये शरीर-चेष्टा और वचनव्यवहार, और मुखाकृति, दया करना, संयम पालना, आदि अविनाभावी विशेषोंसे उन प्रशम आदिकोंके विद्यमान रहनेका दूसरी आत्माओंमें निर्णय होजाता है, ऐसा हम पहिले कह चुके हैं । यदि आप यों कहें कि उन कायचेष्टा आदिकोंका उन प्रशम, संवेग आदिकसे अविनाभाव न होकर व्यभिचार यानी विपक्षमें वृत्तिपना देखा जाता है, विशेष शान्तपुरुष भी बफ-भक्तोंके सदृश प्रतीत होजाते हैं । अधर्म प्रवृत्तिको रोकनेके लिये धर्मके आवेशमें आकर शान्तपुरुष भी क्रोधी होजाते हैं, अतः दूसरोंमें उन प्रशम आदिकोंकी सत्ताका निर्णय करानेवाला कोई बढिया हेतु नहीं है । व्यभिचारी हेतुसे साध्यकी सिद्धि नहीं होती है । ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसा तो नहीं कहना चाहिये, क्योंक अच्छी तरह परीक्षा करलिये गये कायचेष्टा आदिकोंका कहीं भी कभी व्यभिचार नहीं होता है । शंकाकार जो यह कहरहे हैं कि शान्त भी जीव क्रोधी सदृश दीखते हैं, रागी पुरुष भी अन्तरङ्गमें विरक्त हैं, ऊपरसे बकभक्त भी अनेक देखेजाते हैं, इससे ही जाना जाता है कि शङ्काकारके पास प्रशम आदिकके निर्णय करनेका उपाय अवश्य है। तभी तो उन्होंने ज्ञातकर उक्त बातोंको कहा है । कहीं निर्णय किये बिना दूसरे स्थलपर संशय करना नहीं होसकता है । अतः निश्चय कर भले प्रकार परीक्षा करलिया गया कार्यहेतु अपने कारणरूप साध्यको ज्ञापक होकर समझा देता है । अन्यथा यानी विना परीक्षा किया हुआ कार्य अपने कारण रूप साध्यका ज्ञापक नहीं माना गया है।
यदि पुनरतीन्द्रियत्वात् परमप्रशमादीनां तद्भावे कायादिव्यवहारविशेषसद्भावोऽसक्यो निश्चेतुमिति मतिः, तदा तदभावे तद्भाव इति कयं निश्चीयते ।
- यदि फिर आप आक्षेपकार यों कहें कि दूसरे आत्माओंके प्रशम आदि गुण अतीन्द्रिय हैं, किसी इन्द्रियसे उनका ज्ञान होता नहीं है, अतः उन गुणोंके होनेपर अविनाभाव रूपसे होनेवाले