Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
पडेगा और सम्यग्ज्ञान होगा तो सम्यग्दर्शन भी अवश्य होगा, प्रशम आदिक भी अवश्य होवेंगे, उनको फिर पहिले सम्यग्ज्ञानका दूरवर्ती फल माना जावेगा । इस प्रकार कहीं पर भी स्थिति न हो सकने के कारण अवितथ ज्ञान यानी सम्यग्ज्ञानको अनादिपना आजावेगा जो कि इष्ट नहीं है ।
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सम्यग्दर्शनसमसमयमनुभूयमानत्वात् प्रशमादेस्तत्फलत्वमपि माभूत् इति चेन्न, तस्य तदभिन्नफलत्वोपगमात्तत्सम समयवृत्तित्वाविरोधात्, ततो दर्शनकार्यत्वाद्दर्शनस्य ज्ञापकाः प्रशमादयः सहचरकार्यत्वात्तु ज्ञानस्येत्यनवद्यम् ।
यहां कोई कटाक्ष करता है कि कारणसे उत्तरकालमें फल हुआ करते हैं, आप जैन ने प्रशम आदि चारोंको सम्यग्दर्शका फल माना है, जब कि सम्यग्दर्शनके समान कालमें प्रशम आदिकोंका अनुभव हो रहा है । ऐसी दशामें सम्यग्दर्शनके भी फल न हो सकेंगे । भावार्थ:- सम्यग्ज्ञानको अनादिपनेके प्रसङ्गके समान आपके सम्यग्दर्शनको भी अनादिपनेका प्रसंग आये विना न रहेगा, क्योंकि सम्यग्दर्शनके समानकालवाले प्रशम आदिकोंको उसके पूर्व समयवर्ती सम्यग्दर्शनका फल मानोगे । किंतु पूर्व सम्यग्दर्शनके समयमें भी प्रशम आदिक होवेंगे उनको उससे भी पहिले समय में हुए सम्यग्दर्शनका फल मानोगे । इस प्रकार अनादिपनेकी धारा बढ जावेगी । आचार्य शिक्षा देते हैं कि यह कहना तो समुचित नहीं है । क्यों कि हमने उन प्रशम आदिकोंको उस सम्यग्दर्शनका अभिन्न फल होना स्वीकार किया है । जो अभिन्न फल होते हैं वे कारणके समान समयमें भी वर्तते हैं, कोई विरोध नहीं है, जैसे कि अज्ञानकी निवृत्ति ज्ञानके समकालमें होती है । ऐसा नहीं है कि ज्ञान उत्पन्न हो जावे और उस समय अज्ञान भी बैठा रहे । दीपक के प्रज्वलित होते ही उसका फल अन्धेरेका नाश उसी क्षण हो जाता है । तैसे ही सम्यग्दर्शनके समयमें उसके अभिन्न फल माने गये प्रशम आदिकोंका भी तत्क्षण में अनुभव हो जाता है, अतः सम्यग्दर्शन के अनादिपनेका प्रसंग दूर हो जाता है । तिस कारणसे अबतक सिद्ध हुआ कि दर्शनके कार्य हो जानेसे प्रशम आदिक हेतु तो सराग सम्यग्दर्शनके ज्ञापक हैं और सम्यग्ज्ञानरूप साध्य के साथ रहने - वाले सम्यग्दर्शन गुणके कार्य हो जानेसे तो वे प्रशम आदिक सम्यग्ज्ञानके भी ज्ञापक हेतु हो जाते हैं । सम्यग्दर्शनको साध्य बनानेपर प्रशम आदि कार्यहेतु हैं और सम्यग्ज्ञानको साध्य बनानेपर तो वे सहचरकार्य हेतु हैं । सम्यग्ज्ञानका साथी सम्यग्दर्शनगुण न्यारा है । दस कारणों के कार्य एक समयमें दस होरहे हैं । प्रत्येकका विवेक करना परीक्षकोंको सुलभ है । इस प्रकार प्रशम आदिक सम्यगदर्शनके अनुमान करनेमें कोई दोष नहीं है । प्रशम आदिक हेतु सम्यग्दर्शनके साथ . अविनाभाव रखते हुए निर्दोष हैं ।
परत्र प्रशमादयः संदिग्धासिद्धत्वान्न सद्दर्शनस्य गमका इति चेन्न, कायवाग्व्यवहा रषिशेषेम्वस्तेषां तत्र सद्भावनिर्णयस्योक्तत्वात् तेषां तद्व्यभिचारान्न तत्सद्भावनिर्णयहेतुत्वमिति चेन्न, सुपरीक्षितानामव्यभिचारात्, सुपरीक्षितं हि कार्य कारणं गमयति नान्यथा ।
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