Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थाचन्तामाण
साक्षात् फल दो चार नहीं हुआ करते हैं, किन्तु एक ही फल होता है। तभी तो भिन्न भिन्न कार्योको भिन्न भिन्न कारणोंसे उत्पन्न होनेका नियम है । यदि फिर कोई यह कहे कि ज्ञानका अव्यवहित फल तो अज्ञानकी निवृत्ति होना है । किन्तु ज्ञानके परम्परासे फल प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यभाव होना है, जैसे कि ज्ञानके परम्परासे फल हेयपदार्थमें त्यागबुध्दि करना आदि और उपादेयका ग्रहण करना, तथा उपेक्षणीय तत्त्वकी उपेक्षा करना है। यों एक करणके परम्परासे अनेक भी फल होसकते हैं, ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि तब तो ज्ञानके ठीक उत्तर कालमें त्याग-बुदि, ग्रहण-बुध्दि, और उपेक्षाबुध्दिके समान ही प्रशम आदिक भी अनुभवमें आने चाहिये, किन्तु ऐसा होता हुआ नहीं देखा जाता है । हां ! इसके विपरीत ज्ञानके समान कालमें ही प्रशम आदि गुणोंका अनुभव होता है। जो जिसका परम्परासे होनेवाला फल है वह उसके कुछ समय पीछे होता हुआ जाना जासकता है । उसी क्षणमें नहीं । अतः ज्ञानके फल प्रशम आदिक नहीं होसकते हैं । किन्तु सम्यग्दर्शनके फल हैं।
पूर्वज्ञानफलत्वात प्रशमादेः सांप्रतिकज्ञानसमकालतयानुभवनमिति चेत्, सहि पूर्वज्ञानसमकालवर्तिनोऽपि प्रशमादेस्तत्पूर्वज्ञानफलत्वेन भवितव्यमित्यनादित्वप्रसक्तिरवितथा ज्ञानस्य ।
यहां कोई पुनः कहते हैं कि वर्तमानज्ञानके समकालमें जो प्रशम आदिक अनुभूत हो रहे हैं वे उससे पहिले समयोंमें उत्पन्न हो चुके ज्ञानोंके फल हैं, जैसे कि वर्तमानकालमें हम किसी नूतन वस्तुको जान रहे हैं, उस समय हमारी हेय और उपादेय बुद्धि भी हो रही है और छोडना, ग्रहण करना, फल भी हो रहा है। ये सब वर्तमानज्ञानके फल नहीं है । किन्तु पहिले हो चुके ज्ञानोंके फल हैं । पहिली भोगी हुयी खाद्य, पेय, सामग्रीसे आजका शरीर बना है। आजकी सामग्रीसे कलका बनेगा । एवं पूर्वके व्यापारिक लाभसे अब व्यापार करते हैं, इसका फल पुनः प्राप्त होगा। तथा कलके भोज्य, पेय, से आजकी लार और पित्ताग्नि बन गयी। इस लार और पित्ताग्निके बलपर आज खावेंगे । यह धारा आगे भी चलती रहेगी। तैसे ही पहिले ज्ञानोंके फलस्वरूप प्रशम आदिकोंका वर्तमानज्ञानके समकालवृत्तिपने करके अनुभव हो जाता है । आचार्य समझाते हैं कि ऐसा कहोगे तो पूर्वज्ञानके समानकालमें होनेवाले भी प्रशम आदिकोंको उससे भी पहिले कालके ज्ञानोंका फलपना होना चाहिये । इस प्रकार सम्यग्ज्ञानको अनादिपनेका प्रसंग होता है। भावार्थ-सम्यग्दर्शनके समयमें जीवोंके प्रशम आदिक गुण अवश्य होते हैं। यदि वे प्रशम आदिक गुण सम्यग्ज्ञानके परम्परासे होनेवाले फल माने जावेंगे तो सम्यग्दर्शन गुणके पहिले भी सम्यग्ज्ञानका होनाः मानना पडेगा । उस सम्यग्ज्ञानके समय भी सम्यग्दर्शन गुण अवश्य होगा। क्योंकि सम्यग्दर्शनके 'विना सम्यग्ज्ञान होता नहीं, तब तो उस सम्यग्दर्शनके भी समयमें प्रशम आदिक अवश्य होंगे । उनको भी आप सम्यग्ज्ञानका परम्पराफल कहेंगे । इस प्रकार फिर भी उसके पहिले सम्यग्ज्ञान गुणका सद्भाव मानना