________________ सेंठिया जनप्रन्यमाला 'मधिकारियों की खुशामद करने के लिए उनके घर जूते न चटकाता फिरे। दुरग्राही न बने / अपना स्वार्थ न चाहे / परोपकार पर दृष्टि रक्खे / काम करने की सामर्थ्य न होने पर प्रकट कर दे, लेकिन दंभी बनकर पड़ा न रहे / सेवाभाव हृदय में सदा जागृत रक्खे / 66 अस्थिर चित्तवाले प्राणी की आत्मा ही अपना शत्र और जितेन्द्रिय की आत्मा ही अपनी रक्षक होती है। इसलिए इन्द्रियों को घश करने का अभ्यास करे / .... 7. धार्मिक कार्य के समान उत्तम शुभकृत्य, जीवहिंसा के समीम भारी मशुभंकृत्य, राग के समान उत्कृष्ट बन्धन, और बोधि (सम्यक्त्व प्राप्ति) के समान उत्तम लाभ न समझे / - 71 पास्त्री, मूर्ख, अभिमानी, और चुगलखोर को सोहबत्त 'न करे; क्योंकि ये चारों भारी मापत्ति के कारण हैं। 72 सच्चे धर्मात्माओं की संगति अवश्य करे / तत्व के ज्ञाता विद्वजनों से मन का सन्देह दूर करे / त्यागियों साधु महात्माओंका मादर- सत्कार करे / निर्लोभ, ममत्वहीन निःस्वार्थी सत्पुरुषों को अवश्य दान दे। . 73 निर्धन अवस्था में दान देना, उच्च पदाधिकारी का क्षमा धारण करना, सुख की समस्त सामग्री के होते हुए इच्छा का निरोध करना, और तरुण वय में इन्द्रियों पर विजय पाना अति न है, तथापि भवश्य कर्तव्य होने से मौका आने पर. नहीं चूके।