________________ हिन्दी-बाल-शिक्षा (143) को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है, देवता उसका महोत्सव मना रहे हैं। श्रेणिक मानो स्वप्न देख रहा हो, इस प्रकार अटपटाकर बोला- नाथ ! आप तो फिर भी संशयोत्पादक ही वचन कह रहे हैं / मेरी समझ में कुछ नहीं आया, स्पष्ट करने का अनुग्रह कीजिये / परम कृपालु भगवान् बोले-हे देवानुप्रिय! मैंने जो 2 कुछ कहा है, ठीक ही कहा है। जीवों की गति परिणामों के अनुसार होती है और परिणाम सदा सदृश नहीं रहते समय २परिवर्तित होते रहते हैं / जब तुमने ऋषि को वन्दना की थी, उनके शुभ परिणाम थे। तुम्हारे आगे बढ़ते ही तुम्हारा सुमुख नामक सेवक आया। उसने ऋषि की प्रशंसा की, तब भी उनके परिणाम शुभ ही रहे। सुमुख के अनन्तर दुर्मुख सेवक आया। वह ऋषिको देखकर बोला-अरे! यह पाखण्डी साधु बना बैठा है, और चपा का राजा दधिवाहन आदि इसके अल्पवयस्क बालक को मार कर राज्य छीन लेंगे। दुर्मुख के दुर्वचन सुनते ही ऋषि समाधि से भ्रष्ट होकर मन ही मन मारकाट मचाने लगे-युद्ध करने लगे उस समय यदि उनका शरीरान्त होता तो वे सातवें नरक जाते। तुमने जब दूसरी बार प्रश्न किया तब युद्ध समाप्तप्रायः था सब अस्त्र शस्त्र बीत चुके थे / केवल एक ही शत्रु का काम तमाम करना अवशेष था। उसे मारने के लिए ऋषिने मुकुट लेने को मस्तक पर हाध फैलाया / पर मुकुट को गायब देख उन्हें अपने पद की सुध आ गई। उन्होंने सोचा- अहो ! मैं कौन हूँ ? मैं तो यति हूँ। मैं सर्व प्रकार के परिग्रह का त्यागी हूँ। मेरी शत्रु मित्र पर समदृष्टि होनी चाहिए। इस प्रकार विचारश्रेणी के दूसरी ओर मुड़ते ही क्रमशः केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। .. .