________________ सेठिया जैन ग्रन्थमाला तो अनेक साधन हैं, परन्तु आत्मिक-सुख का ऐसासाधन किसी भाग्यवान को ही नसीब होता है।" विजय०-पर...... विजया-इसमें 'पर' 'अपर' के लिए कोई स्थान नहीं है। मैं प्राज से ही दोनों पक्षों (पखवाड़ों) में ब्रह्मचर्य का पालन करूँगी, और श्राप शुक्लपक्ष में ही ब्रह्मचर्य पालन कीजियेगा।' .. विजय०--यह क्योंकर होगा विजया! तुम दोनों पक्षों में ब्रह्मचर्य पालन करोगी, और मैं एक पक्ष में, यह कैसे संभव है ? मालूम होता है इस समय तुम्हारा मस्तिष्क अस्थिर हो रहा है, इसीसे ऐसी बेजोड़ बातें निकल रही हैं। विजया-नाथ! मेरा मस्तिष्क अस्थिर नहीं है, न बात ही बेजोड़ है। जिसके हो सकने का उपाय है, वह असंभव नहीं। अनुग्रह करके श्राप दूसस पाणिग्रहण कर लीजिये। विजय-विजया! भोली विजया! तू नहीं समझती कि मैं क्या कह रहा हूँ। क्या विशुद्ध प्रेम का कभी विभाग हो सकता है ? या तुम मेरे प्रेम की परीक्षा करना चाहती है? क्या तुम ' समझती हो कि मैं विषय-वासना की तृप्ति के लिए आत्महमन करूँगा? क्या भोगलालसा को पूर्ण करने के लिए जीवन की अमूल्य भावनाओं का होम कर दूंगा? जैसे सती साध्वी त्रियों को एक ही जन्म में दूसरा पति असंभव है, वैसे मेरे लिए भी एकपत्नी व्रत ही बस है। . विजया-नाथ! संसार में सौतिया-डाह प्रसिद्ध है। कदा:चित पापको भी इससे भय होगा। मैं विश्वास दिलाती हूँ कि