________________ सेठिया जैन ग्रन्थमाला A mr. ... विजय०-"पिताजी! मुझे क्या चिन्ता है ? श्राप जो करेंगे, यह उचित ही करेंगे।" पुत्र को सम्मति समझकर अहदास ने धनावह की पुत्री विजया से विजयकुमार की सगाई पक्की कर दी। जब विवाह का समय आया, तो खूब धूमधाम मची। दोनों ओर से तैयारियां होने लगी / यथासमय बरात आई / सब शिष्टाचार का यथायोग्य पालन हुा / अन्त में पाणिग्रहण का शुभ मुहूर्त श्रा गया। पुरोहितजी ने पाणिग्रहण कराया और उपस्थित समुदाय की ओर लक्ष्य कर बोले-श्या भाप लोगों में से कोई यह बतावेगा कि पाणिग्रहण का क्या रहस्य है ? / सभा में सन्नाटा छा गया / जब किसी ने कुछ उत्सर न दिया तो पुरोहितजी कहने लगे-"पाणिग्रहण करके भी पाणिग्रहण का रहस्य न समझने से विवाहित स्त्रीपुरुष चतुर्भुज नहीं बलिक चतुष्पद होते हैं और उनका गृहस्थ जीवन, जो कि स्वर्गीय जीवन से भी उत्तम है, अनिष्ट का कारण हो गया है। पाणिग्रहण का अभिप्राय बहुत गूढ़ नहीं है, परन्तु विचार-बुद्धि जब तक जिस ओर जरा भी आकृष्ट न हो, तबतक सहज से सहज बात मी हमारे मस्तिष्क में नहीं आ सकती / यिकृत बने हुप सामाजिक संस्कारों से संस्कृत बालक-बालिकाओं के दयों में विषय-तृप्ति-लालसा की दुर्गन्ध अपना साम्राज्य स्थापित कर लेती है, तब यथार्थ विचार और बुद्धि रूपी सुरभि पास भी नहीं फटकने पाती। यही कारण है कि लोग गृहस्थजीवन के प्रथम सोपान पाणिग्रहण का भी तत्त्व नहीं जानते / अस्तु,सर जानते हैं कि मित्र के साथ हाथ मिलाया जाता है, दास दासी के साथ नहीं / अतः स्त्री को दासी नहीं वरन् मित्र के समारगिनना चाहिए। जीवन को प्रादी-टेढ़ी पगडंडियों को