________________ सेठिया जैन प्रथमाला शमन कर दूसरी इन्द्रियों की वासनाएँ अपना सिर उठावें उससे पूर्व ही उन्हें प्रात्मसागर में मिला देने से प्रात्मा पूर्ण शान्ति का अनुभव कर सकता है / वास्तविक मनुष्यत्व ब्रह्मचर्य में ही है।" इत्यादि कह कर गुरुदेव ने व्याख्यान समाप्त किया। सब श्रोता एक एक करके अपने 2 स्थानों पर जाने लगे / इतने में एक सुन्दर सुकुमार बालिका गुरु महाराज के सामने पाकर खड़ी हुई / वह बोली-पूज्य! मुझे यह व्रत दीजिये। ....... .... गुरुजी बालिका की यह अभ्यर्थना सुन, मुसकिरा दिये / उनकी मुसकराहट में बालिका की अभ्यर्थना में अज्ञानता की आशंका थी। ..' “बालिका! तू अभी बहुत छोटी है। तुझे अभी इस व्रत की. क्या आवश्यकता है ?'' - "गुरुजी ! जीवनक्षितिज पर काले मेघों की वन घोर घटाएँ उमड़ें उससे पहले की मेरी यह तैयारी क्या अयोग्य है?" ..., "किन्तु यह ब्रह्मचर्य व्रत बहुत कठिन है" "पूज्य ! कठिन है, पर सुन्दर भी है न? इसीसे मेरा मन ललचाता है" बालिकाने यह बात निडरता पूर्वक निःसङ्कोच होकर कही। ... “बोलो! किस प्रकार व्रत लेना चाहती हो?", .. - "महाराज! आजन्म ब्रह्मचर्य पालन करने की मेरी तोत्र लालसा है।" 'बालिका तू क्या कहती है, इसका तुझे भान है ? किसी वृत्ति को एकदम दवा देने से प्राघात-प्रत्यायात के नियमानुसार उस