________________ सेठिया जैन अन्यमाला पाठ 16 वाँ संसार की चार उपमाएँ बड़े बड़े तत्वज्ञानियों ने संसार की समुद्र से उपमा दी है / यह उपमा बैठती भी टीक है / जैसे समुद्र में तरंगें उठती हैं वैसे ही संसार में विषयवासनाओं की तरंगें उठा करती हैं / जैसे समुद्र ऊपर से समतल मालूम होता है वैसे ही संसार भी ऊपर से सरल दीखता है। जैसे समुद्र बहुत गंभीर होता और कहीं कहीं उसमें भँवर पड़ता है वैसे ही संसार काम--विषय--प्रपंचों से गम्भीर है और उसमें मोह रूपी भंवर पड़ते हैं / जैसे समुद्र तूफानों से नौका को हानि पहुँचाता है, वैसे ही संसार में भी काम रूपी तूफान से प्रात्मा की हानि होती है / जैसे समुद्र ऊपर से अपनी अगाध सलिल-राशि से शीतल जान पड़ता है पर उसके अन्दर बड़बानल * होता है, उसी तरह संसार में लोभ रूपी अग्नि जलती रहती है। (2) संसार को दूसरी उपमा अग्नि से भी दी जाती है / जैसे अग्नि से विकट संताप उत्पन्न होता है, वैसे ही संसार से त्रिविध ताप की उत्पत्ति होती है। जैसे आग का जला जीव बुरी तरह छटपटाता है वैसे ही संसार रूपी ताप से जला हुआ जीव बुरी * समुद्र की अग्नि / समुद्र में वस्तुतः बड़वानल नहीं होता यह कवियों की काल्पना मात्र है।