________________ (62) सेठिया जैन ग्रन्थमाला पाठ 19 वॉ। रीति-रवाज संस्कृत भाषा में एक उक्ति है-“लोको हि अभिनवप्रियः" अर्थात् लोग नये को प्यार करते हैं / यह उक्ति कितने ही विषयों में सत्य प्रतीत होती है परन्तु रीति-रवाजों के विषय में तो इसका जरा भी प्रवेश नहीं दिखायी पड़ता / जो लोग समय की प्रगति को भलीभांति जानते हैं,रीति-रवाजों की परिवर्तनशीलता से परिचित हैं उनके लिये परम्परा से चली आयी हुई दूषित रीतियां कुछ महत्व नहीं रखती वरन् समाज का हित करने वाली नवीन प्रथाएँ महत्वपूर्ण प्रतीत होती हैं। परन्तु जिनमें स्वयं विचार-शक्ति नहीं है वे रवाजों को इतना महत्व देदेते हैं कि उनमें सुधार करने अथवा उन्हें बदलने के लिये किसी प्रकार तैयार नहीं होते / ऐसे लोग उलटे स्वतंत्र विचारकों पर ही अक्ल का दुश्मन होने का अारोप लगाते हैं परन्तु विचारपूर्वक देखने पर विदित होगा कि वे स्वयं पुरानी प्रथाओं के अन्ध भक्त होने के कारण अपनी विचार शक्ति खो बैठते हैं / इनकी इस विचारधारा का क्या कारण है? थोड़ा विचार करने से मालूम होगा कि ऐसे आदमियों के इस व्यवहार का कारण प्राचीनता का ममत्व है। पुरानी पद्धतियों से सैकड़ों वर्षों का परिचय और सम्बध होने से स्वभावतः ही उनके प्रति साधारण हृदयों में एक प्रकार की ममता जाग उठती है। नयी बातें नये नियम अपरिचित होते हैं, इसलिये साधारण