________________ हिन्दी-बाल-शिक्षा (71) हैं यही नहीं, 75 मील की तेजी से दौड़ती हुई मोटर उनके शरीर पर से पार हो जाती है / यह अलौकिक वल है, दैवी शक्ति है / सुनकर आश्चर्य होता है, देखकर दांतों तले उँगली दवानी पड़ती है। किन्तु ये बातें देखने में असाध्य मालूम पड़ने पर भी असंभव नहीं हैं / प्रयत्न करने पर लोग राममूर्ति जैसा बन सकते हैं। राममूर्ति स्वयं कहते हैं-"निष्फलता क्या है" यह राममूर्ति ने कभी नहीं जाना। एक बार, दो वार, तीन बार, पांच वार, दस वार, कोशिश करते चलो, सफलता अवश्य मिलेगी। "काय वा साधयामि शरीरं वा पातयामि' करूँगा या मरूँगा यही हमारा सिद्धान्त है।" राममूर्ति में जो अलौकिक बल आज हम देखते हैं वह उनकी लगातार कोशिशों का फल है- ईश्वर का दान नहीं है / बचपन में राममूर्ति बड़े दुबले पतले थे। दो ही वर्ष की उम्र में उनकी माता मर गयीं थीं। पांच वर्ष की उम्र में ही उन्हें दमा (सॉस का रोग हो गया था / उनका चेहरा पीला और रोगी-सामालूम होता था / अपनी दुर्बलता पर उन्हें बड़ा दुःख था / भीम, लक्ष्मण, हनुमान आदि की कथाएँ सुनकर वह सोचा करते कि कहीं में भी वैसा बलवान होता / स्कूल में पढ़ते लिखते समय भी वह यही सोचा करते थे। केवल कल्पना में लगे रहने से ही काम नहीं चलता। कर्मवीर पुरुष अपनी कल्पना को कार्यरूप में बदलते और संसार में विजयी होते हैं / बालक राममूर्ति ने भी कसरत करनी शुरू कर दी। अपने स्कूल में भी वह फुटबाल आदि खेलने लगे कुछ दिनों तक विलायती ढंग से भी कसरत की पर कुछ लाभ न हुआ। हार कर देशी ढंग से कसरत करने लगे। अखाड़े में डंड बैठक करने और कुश्ती लड़ने लगे। वह कहते हैं