________________ [40] सेठियाजैनग्रंथमाला पाठ पन्द्रहवाँ. अहंकार और मायाचार / अहंकार पर्वत के समान है / जैसे पर्वत से नदियां निकलती हैं, वैसे ही घमण्ड से विपत्ति रूपी नदियों का उद्गम होता है। पर्वत पर दावाग्नि और दावाग्नि से धुंआ होता है, और घमण्ड में भी क्रोध रूपी अग्नि, और उससे होने वाला हिंसा रूपी धुंग्रा होता है / घमण्डी में नाममात्र भी कोमलता नहीं होती। इसलिये विनीत आचरण करो और अहंकार को छोड़ो। ___मदोन्मत्त पुरुष क्या 2 अनर्थ नहीं करते? वे अपनी और दूसरों की शान्ति को भंग करते हैं, अपनी सुबुद्धि की पर्वाह नहीं करते, दुर्बचन बोलते हैं, शास्त्रों के अंकुश को नहीं गिनते, स्वेच्छाचारी हो जाते हैं और विनय को ताख में रख देते हैं / इसलिये अहंकार को छोड़ देना चाहिये। अहंकार धर्म अर्थ और काम को नष्ट कर डालता है। वायु जैसे मेघों का नाश करता है, वैसे ही अहंकार उचित पाचारण का नाश कर देता है / इससे जीवन विगड़ जाता है और संसार में अपयश होता है। अत