________________ (32) सेठियाजैनग्रन्थमाला रना हर एक मानव का परम कर्तव्य है / यह विचार कर भगवान् ने दीक्षा लेने का निश्चय किया / उन्होंने अपना निश्चय अपने बड़े भाई नंदिवर्धन से कहा / परन्तु उसने अपनी सम्मति न दी और कुछ दिन और गृहस्थी में रहने का आग्रह किया / भगवान को संसार के विषय भोग यद्यपि काले सांप ऐसे डरावने प्रतीत होते थे, परन्तु वे अपने बड़े भाई का आगृह न टाल सके / उन्हों ने जैसे तैसे दो वर्ष और काटे। पश्चात् इस भावना के साथ, दीक्षा लेली कि संसार इन्द्रजाल के समान है / जगत् के सब पदार्थ पानी के बुलबुले की नाईं बात की बात में नष्ट होते दिखलाई देते हैं / रोग शोक आधि और व्याधि छाया की भांति प्राणियों के साथ सदा बनी रहती हैं। और अवसर पाते ही हाथ साफ़ करती हैं। फिर क्या रह जाता है ! केवल अपने किये हुए पुण्य और पाप / इनके सिवाय और कोई चीज़ साथ नहीं जाती, इसलिये ही लोक में कहावत प्रचलित है "अपनी करनी पार उतरनी"। उस समय देवों ने स्वर्ग से आकर दीक्षा कल्याण मनाया था / इस प्रकार आजतक जो शरीर राजसी ठाठ के बढ़िया वस्त्रों और अलंकारों से शोभित हो रहा था, अब वह संयम रूपी अलंकारों से सजा हुआ दिखाई देने लगा। निस्सदेह, शरीर के सच्चे अलंकार संयम और तप आदि ही हैं / भगवान ने इसी अलंकार से अलंकृत होने के लिये संसार के सारे आमोद प्रमोदों को लात मारदी / जिनसे साधारण जन अपनी शोभा मानते हैं, उन केशों को भगवान ने क्षण भर में घास की तरह उखाड़ कर फेंक दिया, और ऐसा करने में उन्हें ज़रा भी खेद न हुआ।