________________ हिन्दी-बाल-शिक्षा (47) कातर होकर दूसरे की शरण ग्रहण कैसे कर सकते हैं ? इसी लिए महावीर प्रभु ने इन्द्र की प्रार्थना को ठुकरा दिया और हम लोगों को यह सिखाया कि दुःखों से मत डरो। आपत्ति श्रामे पर वीरता से उसका सामना करो / दूसरों के आगे हाथ फैलाकर दया की प्रार्थना करने वाले के दुःख दूर नहीं होसकते / दीनता दिखाकर दया की प्रार्थना करना स्वयं एक दुख है। और जैसे कीचड़ से कीचड़ साफ़ नहीं होती, तैसे ही दुख से दुख का नाश नहीं होसकता। प्यारे बालको ! प्रभु की यह शिक्षा कण्ठ करने योग्य है / वे वीर प्रभु धन्य हैं, जिन्हों ने संकट भोगना अंगीकार किया पर इन्द्र की सेवा अंगीकार न की। इसके पश्चात् इन्द्र अपने स्वर्ग चला गया। इधर प्रभु तपस्या करते हुए यत्र तत्र विहार करने लगे / एक दिन प्रभु विहार करते करते श्वेताश्विका नगरी की ओर जाने लगे। रास्ते में एक मनुष्य ने कहा- "हे प्रभु ! यह मार्ग सीधा तो पड़ता है, परन्तु इसमें एक दृष्टिविष सर्प रहता है / उसके भय के मारे वहां किसी की पैठ भी नहीं है / इसलिये कृपा करके दूसरे मार्ग से पधारिये"। उसकी बात सुनकर भगवान् ने अपने दिव्यज्ञान से उस सर्प को पहिचाना / उन्हें मालूम होगया कि यह सर्प भव्य है। वह जैसा भयंकर मालूम होता है वास्तव में उतना भयंकर नहीं है। वह अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर रहा है / यह सोचकर उन्होंने उस पुरुष के कहने की परवाह न कर उसी मार्ग से जाने की चण्डकौशिक नामक सांप अपने बिल से बाहर निकला और प्रभु