________________ (34) सेठियाजैनप्रन्थमाला ज्यों की त्यों लौटा दी और न थैली को सम्हालकर रखने का पारितोषिक ही लिया' / यह सुन पिता ने उत्तर दिया-"यह तो तुम्हारा कर्त्तव्य ही था"। थोड़े दिनों के बाद मँझले लड़के ने अपने पिता के पास पाकर कहा-" पिताजी! एक दिन मैं एक तालाब के किनारे, जो बहुत गहरा था, घूम रहा था कि इतने ही में एक बालक उसमें गिर कर डूबने लगा। यह देख में अपने प्राण को तुच्छ समझ उस तालाब में कूदा और उस बालक को सकुशल बाहर निकाल उसे उसकी दुखी माता को जो तालाब के किनारे खड़ी रो रही थी,सौंप दिया। क्या यह उत्तम कामन था"। पिता ने जवाब दिया-" यह तो मनुष्य की स्वाभाविक दयालुता का प्रमाग था" / ____ अन्त में थोड़े ही दिनों में सबसे छोटा लड़का आया और अ. पने पिता से बोला--" पिताजी ! एक दिन जब में सैर करने जा रहा था, तो मैंने अपने जानी दुश्मन को ढालू धरती के एक छोर पर सोते हुए देखा / मैंने सोचा कि यदि उसकी थोड़ी सी भी निद्रा टूटी और उसने करवट बदली तो नीचे की एक भयंकर और गहरी खाई में बुरी तरह गिर पड़ेगा। ऐसा विचार आते ही मैं ने बड़ी सावधानी से उसे जगाया और चौकन्ना कर एक सुरक्षित जगह बता दी " / बालक इतना ही कहने पाया था कि उसके पिता ने उसे छाती से लगा लिया और प्यार से बोला-"मेरे प्यारे ने! तेरा शत्रु के साथ मित्रका सा बताव सुन में बड़ा खुश हुआ। तूने सब से अच्छा काम किया। अब वह रत्न तेरा है / ले ले"। यह कहकर व: रत्न उस लड़के को दे दिया / और फिर अपना सारा धन तीनों पुत्रों को बराबर 2 बाट दिया / ... बालको ! इस कथा से हम अपने कर्तव्य का भलीभाँति