________________ (44) सेठियाजेनग्रन्थमाला मनुष्यों की उपमा बिलकुल अनुचित है। मृग की बात सुन वह विद्वान् बोला-अच्छा, मृग न सही यह पेड़ के समान है। पेड़ ने कहा-नहीं महाराज, वह हमारे बराबर भी नहीं हो सकता / जब पृथिवी तवे के समान तप जाती है, और मार्तण्ड की प्रचण्ड किरणे आकाश से अग्नि बीती हैं, तब अडग खड़े रहकर पथिकों को शीतल छाया देने की शक्ति हमारेसिवा और किसी में नहीं है। दूसरों के लिये आत्मसमर्पण करदेने वाले महास्मा मनुष्य जाति में विरले ही मिलेंगे, परन्तु वृक्षों का छोटे से छोटा पौधा भी इस असाधारण स्वार्थत्याग के लिए अपना जीवन न्योछावर करदेता है / इसलिए अपढ़ अधर्मी आदमी हमारे वरावर विद्वान्-अच्छा, वह मिट्टी के ढेला सरीखा है / मिट्टी का ढेला-जी नहीं,क्या आप नहीं जानते कि अशुद्ध को शुद्ध कर देने में हम अग्नि देवता से किसी प्रकार कम नहीं हैं। इसके सिया हम में एक ऐसा गुण है, जो देवताओं में भी दुर्लभ है / वह यह कि हम बालकों के आनन्द के आधार हैं। हमारे इस गुण के सामने देवता भी पानी भरते हैं। विद्वान्-वह कुत्ते के समान है। . कुत्ता-महाराज ! जब अधर्मी और फूहड़ आदमी को कोई अपनी जाति में नहीं लेता, तो आप हमारी स्वामि-भक्त और सन्तोष-शील जाति के शिर मढ़ना चाहते हैं / पर उसमें हमारे जैसे गुण ही कहा हैं ? / पण्डितजी-वह कुत्ता नहीं, गधे के समान है।