________________ हिन्दी-बाल-शिक्षा (31) अच्छे अच्छे काव्य पढ़ा करते थे / उस समय उनकी बराबरी का कोई विद्वान नहीं था / कहावत भी है “पूत के पाव पालने में ही दीखने लगते हैं / इस प्रकार बढ़ते 2 भगवान् यौवन अवस्था में आये। इस समय उनका शरीर बिलकुल नीरोग और स्वच्छ था / स्नायुबन्धन ऐसे दृढ़ थे. जैसे लोहे का घन हो / शिर स्थूल था, कंधे गजराज के कंधों के जैसे मस्त थे / कलाई मज़बूत पुष्ट और सुन्दर थीं / भुजाएँ बेंडा के समान पुष्ट थीं / छाती सोने की शिला के समान उज्जवल, समतल और चौड़ी थी। शरीर ऐसा भरा हुआ था कि रीढ़हड्डी तक दिखाई न देती थी। जांघे हाथी की सूंड की तरह पुष्ट थीं। आशय यह है कि महावीर स्वामी की शरीर-सम्पत्ति बहुत ही अच्छी थी / इस प्रकार भगवान् महवीर के जन्म और युवावस्था का थोड़ासा वर्णन है। इसके बाद का जीवनचरित्र ही भगवान की महत्ता को प्रकट करता है / यों तो वे बाल्यकाल से ही विरक्त से रहते थे किन्तु अट्ठाईस वर्ष गृहस्थी में रहकर भगवान के हृदय में वैराग्य की लहर उमड़ी / उन्होंने सोचा- द्रव्य हमें सुखी नहीं बना सकता। मित्र लोग हमें सुखी नहीं बना सकते / सफलता हमें सुखी नहीं बना सकती / और आगंग्यता भी हम सुखी नहीं बना सकती / यद्यपि ये सब चीजें संसार के मोही जीवों को सुख देने वाली मालूम होती हैं परन्तु वे वास्तविक सुख नहीं दे सकतीं / प्रत्येक प्राणी को सुखी बनने के लिये अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए। दूसरों का सहारा न लेकर अपनी आत्मा को ही खोजना चाहिए, उसे पवित्र बनाना चाहिए / आत्मा के, काम क्रोध लोभ मद माया आदि अनेक शत्रु हैं / इनसे उसकी रक्षा क